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________________ 1 क्योंकि जीव का लक्षण उपयोग है । इसी कारण से यह कहा गया है कि उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुष - पराक्रम वाला जीव, आत्म-भाव से जीवभाव (चैतन्य) को प्रदर्शित करता है । यहाँ यह कथन संसारी जीव की अपेक्षा से किया गया है । षड्दर्शनसमुच्चय टीका' में गुणरत्नसूरि ने आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करते हुए कहा है- आत्मा का प्रत्यक्ष होता है, क्योंकि ज्ञान गुण का प्रत्यक्ष होता है, अतः आत्मा को प्रत्यक्ष सिद्ध मानना चाहिये । आचार्य पूज्यपाद' ने भी आत्मा के अस्तित्व को प्रतिपादित करते हुए कहा है- जिस प्रकार यंत्र प्रतिमा की चेष्टाएँ अपने प्रयोक्ता का ज्ञान कराती हैं वैसे ही प्राण, अपान आदि क्रियाएँ भी आत्मा का ज्ञान कराती हैं। जिनभद्रसूरि के अनुसार जैसे गुण व गुणी की अभिन्नता है, वैसे ही स्मरण आदि गुणों से जीव भी प्रत्यक्ष सिद्ध है । इन्द्रियाँ कारण हैं अत: इनका कोई ना कोई अधिष्ठाता अवश्य होना चाहिये वह अधिष्ठाता ही आत्मा है। कुछ आचार्यों ने श्वासोच्छ्वास के रूप में एवं प्राणापान के कारण आत्मा का अस्तित्व स्वीकार किया है । आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करते हुए देवेन्द्रमुनि ने कहा है कि आत्मा संसिद्धि साधन-प्रमाणों से और बाधक प्रमाणों के अभाव इन दोनों से ही होती है । आत्मा को सिद्ध करने के लिए साधक - प्रमाण अनेक हैं, किन्तु बाधक - प्रमाण एक भी ऐसा नहीं है जो आत्मा का निषेध करता है । इसलिए आत्मा एक स्वतंत्र द्रव्य है- यह सिद्ध होता है । आत्मा है, इसका प्रमाण तो चैतन्य की उपलब्धि है। चेतना का हम प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं उससे अप्रत्यक्ष आत्मा का सद्भाव स्वतः सिद्ध है। धुआँ देखकर ही तो अग्नि का ज्ञान होता है क्योंकि बिना अग्नि के धुआँ नहीं होता है । इस प्रकार जैन दर्शन में चेतना, श्वास, प्राण आदि गुणों द्वारा आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध किया गया है । जैन परम्परा में जीव की अवधारणा जैन अनुश्रुति में आत्मा या जीव की अवधारणा अत्यंत प्राचीन है । अगर हम ऐतिहासिक दृष्टि से देखे तो भी भगवान् पार्श्वनाथ के समय (ई.पू. 8वीं शताब्दी) तक जैन परम्परा में जीव - वाद का सिद्धान्त सुस्थिर हो चुका था । जैन परम्परा में जीव या आत्मा की मान्यता जैसी पार्श्वनाथ के समय में थी वैसी ही आज भी है। उसमें किंचित् मात्र भी परिर्वतन नहीं हुआ है । इस संबंध में पंडित सुखलाल जी का मत है कि स्वतंत्र जीववादियों में प्रथम स्थान जैन परम्परा का ही है । जीव अनादि-निधन है, न उसका आदि है न अन्त है । वह अविनाशी है । अक्षय है । 1 जीव द्रव्य 85
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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