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________________ जैन नीतिशास्त्र का स्वरूप • 213 दृढ़ तथा शुद्ध बनाता है।209 गुणव्रतों की सहायता से ही अणुव्रत महाव्रतों में परिणत हो जाते हैं। शिक्षाव्रत जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है निर्वाणार्थी को आध्यात्मिक जीवन तथा पूर्ण वैराग्य के लिए शिक्षित करते हैं।210 गुणवत अणुव्रतों की भावना को दृढ़ करने के लिए जिन विशेष गुणों की आवश्यकता होती है, उन्हें गुणव्रत कहते हैं। गुणव्रत तीन हैं (1) दिग्वत अथवा दिशापरिमाणवत अपनी त्यागवृत्ति के अनुसार व्यवसायादि प्रवृत्तियों के निमित्त दिशाओं की मर्यादा निश्चित करना दिशापरिणामव्रत है। इसके द्वारा अपरिग्रह अणुव्रत की रक्षा होती है। दिग्वत के पांच अतिचार यह है (अ) ऊर्ध्वादिक प्रमाणातिक्रमण-पहाड़ी अथवा वृक्षों पर स्वयं द्वारा निश्चित मर्यादा से ऊपर चढना। (ब) अधोदिक प्रमाणातिक्रमण-कुएं अथवा भूमिगत भण्डारों में निश्चित मर्यादा से नीचे उतरना। (स) तिर्यक दिग्प्रमाणातिक्रमण-किसी गुफा में अथवा किसी भी अन्य दिशा में सीमा से ऊपर यात्रा करना। (द) क्षेत्र वृद्धि-क्रिया की स्वतन्त्रता के लिए सीमाएं बढ़ाना। (य) स्मृत्यान्तर्धान-स्मृतिदोष से सीमा का अतिक्रमण करना। (2) देशावकाशिक व्रत इस व्रत में जीवन पर्यन्त के लिए गृहीत क्षेत्र मर्यादा के एक अंश रूप स्थान की कुछ समय के लिए विशेष सीमा निर्धारित की जाती है। मर्यादित क्षेत्र से बाहर न जाना, बाहर से किसी को न बुलाना, न बाहर किसी को भेजना और न बाहर से कोई वस्तु मंगवाना, बाहर क्रय-विक्रय न करना आदि इस व्रत के लक्ष्य हैं।12 देशावकाशिक व्रत के पांच अतिचार हैं (अ) आनयन प्रयोग-किसी व्यक्ति को निर्धारित सीमा से बाहर कुछ अनुनय से
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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