SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन नीतिशास्त्र का स्वरूप • 211 परिवार तथा सम्बन्धित वस्तुओं के प्रति इतना अधिक मोह बढ़ जाता है कि वह इन सबको अपनी सम्पत्ति समझ बैठता है। जैनचिन्तन में तपस्वी को ऐसा जीवन बिताना चाहिए कि वह अपने शरीर तथा मन को भी, मोक्ष के मार्ग की बाधा समझे। श्रावक के लिए अपरिग्रह व्रत का अर्थ है आवश्यकता से अधिक का संग्रह करने की चाह न रखना। श्रावक को इस व्रत के पालन में जो छूट दी गयी है उसका कारण यह है कि इस व्रत का कठोर पालन समाज के हित में न होगा। ___व्यवसाय चाहे कोई भी हो, इस व्रत के पालन का अर्थ होगा अपने कर्तव्य का न केवल कुशलता से, अपितु ईमानदारी से भी पालन करना। उदाहरण के लिए व्यापारी के सन्दर्भ में कुशलता का अर्थ होगा व्यापार के नियमों की जानकारी तथा उनका सही प्रयोग जिससे आर्थिक साधनों में वृद्धि होती है। व्यापारी द्वारा ईमानदारी बरतने का अर्थ है अपने धन्धे को व्यक्तिगत सुख तथा समाज कल्याण का साधन समझना।200 अपने व्यवसाय में उचित अथवा नैतिक तरीकों को अपनाकर व्यापारी महत्तम लाभ उठाते हुए समाज की सेवा कर सकता है। ___व्यापक रूप में जीवन के प्रति त्याग की यह भावना, जिसे अन्ततोगत्वा व्यक्ति को अपनाना होता है, सामान्य जीवन बिताने वाले श्रावक द्वारा भी व्यवहार में लाई जा सकती है। ___ यद्यपि अस्तेय एवं अपरिग्रह व्रत में बहुत कुछ समानता है, फिर भी दोनों में कुछ अन्तर है। जहां अस्तेय दूसरों की सम्पत्ति न लेने या लोभ नहीं करने पर जोर देता है, वहां अपरिग्रह व्रत में अपनी वस्तुओं के प्रति भी उदासीनता अथवा अनासक्ति पर जोर दिया गया है।201 ब्रह्मचर्याणुव्रत "ब्रह्मचर्य'' का अर्थ है-काम वासनाओं का पूरी तरह त्याग। जैन मत में ब्रह्मचर्य व्रत का मन, वचन और कर्म से पालन करने पर बल दिया गया है। दृढ़तापूर्वक ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों पर नियन्त्रण रखने वाले व्यक्ति को दुराचारी और दम्भाचारी की संज्ञा दी गयी है। ऊपर से इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखना एवं मन से उनका चिन्तन करना ब्रह्मचर्य नहीं है।202 गीता में भी ऐसा आचरण करने वाले को मिथ्याचारी कहा गया है।203 श्रावक के सन्दर्भ में इस व्रत का कठोर रूप में पालन संभव नहीं है। संभोग से विरत रहने का यदि कठोरता से पालन किया जाये तो व्यक्ति के लिए परिवार का कोई अर्थ नहीं रह जाता। जैन दार्शनिक समस्या के इस पहलू से अनभिज्ञ नहीं थे। इसलिए उन्होंने सुझाया कि श्रावक द्वारा एक पत्नीव्रत का पालन करने से इस व्रत
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy