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________________ जैन नीतिशास्त्र का स्वरूप • 175 के वशीभूत होकर दूसरे मनुष्य पर वार करता है तब वह हिंसा कषाय कही जाती है और जब मनुष्य की असावधानी से किसी का घात हो जाता है या किसी को कष्ट पहुंचता है तो वह हिंसा अयग्राचार से कही जाती है। अहिंसा का भेद बहुत ही सूक्ष्म है। इनका विवेचन जिस प्रकार किया जाता है, उसमें हमें मानसिक पक्ष की प्रधानता दिखाई देती है । अतएव वैचारिक अहिंसा ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानी जाती है, यथा - जीव चाहे जीये चाहे मरे, असावधानी से काम करने वाले को हिंसा का पाप अवश्य लगता है। वस्तुत: अहिंसा को काया और सामान्य व्यवहार एवं आचार की सीमा में बद्ध नहीं किया जा सकता है। यदि इसे विचार का भी आधार न बनाया जाये तो अहिंसा की उपयोगिता बहुत ही सीमित रह जाती है। इस ओर जैन परम्परा की दृष्टि गई है और उसने आचार के क्षेत्र के साथ विचार के क्षेत्र में भी गरिमा को ठोस भूमिका एवं निश्चित रूप प्रदान किया है। जैन परम्परा ने वैचारिक हिंसा की सम्भावनाओं को समाप्त करने का पूरा प्रयत्न किया है। जैन अहिंसा भय पर आधारित नहीं है अपितु इस मानवीय एवं बौद्धिक भावना पर आधारित है कि सभी जीव एक हैं और जो व्यक्ति जानवरों को खाते हैं, वे उन जानवरों से श्रेष्ठ नहीं है जो दूसरे जानवरों को खाते हैं। आचरणगत अहिंसा हमारे मन में अन्य प्राणियों की रक्षा भावना को तो प्रोत्साहन प्रदान कर सकती है, परन्तु वह हमारे मन में मैत्री का भाव नहीं जगाती है। अहिंसा वस्तुत: मैत्री का धर्म है, विश्व बन्धुत्व की जननी है जो जागतिक प्रेम और सभी प्राणियों के प्रति करुणा से उत्पन्न होती है। सामान्यतः हिंसा चार प्रकार की होती है-संकल्पी, उद्योगी, आरम्भी और विरोधी। निरपराध जीव का जानबूझ कर वध करना संकल्पी हिंसा कहलाता है, जैसे कसाई द्वारा पशुवध । जीवन निर्वाह के लिए व्यापार, खेती आदि करने से, कल कारखाने चलाने तथा सेना में नौकर होकर युद्ध करने आदि से जो हिंसा हो जाती है, उसे उद्योगी हिंसा कहते हैं। सावधानी रखते हुए भी भोजन आदि बनाने में जो हिंसा हो जाती है, उसे आरम्भी हिंसा कहते हैं और अपनी या दूसरों की रक्षा करने के लिए जो हिंसा करनी पड़ती है उसे विरोधी हिंसा कहते हैं। स्पष्ट है कि जैन धर्म ने समस्त प्रकार की हिंसा का निषेध किया है। मांस भक्षण किसी भी रूप में वैध नहीं माना जा सकता है। धर्म समझ कर पशुओं की जो बलि चढाई जाती है वह एक प्रकार की मूढ़ता एवं नृशंसता है तथा हिंसा की सीमा में आती है। इसी प्रकार जैन आचार्य मृगया को भी अनुचित मानते हैं। उनका कहना तो यहां तक है कि हिंसा और शूरता - वीरता का परम्परा से कोई सम्बन्ध नहीं है। प्रायः ऐसे उदाहरण मिल सकते हैं जब स्वभाव तथा अभ्यास से हिंसा करने वाले युद्ध का अवसर उपस्थित होने पर कायरों की भांति प्राण बचाकर भागे हैं।
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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