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________________ 176 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति इस प्रकार सर्व प्राणातिपात विरमण के विवेचन का सारांश यह है कि सर्वविरत् भिक्षु को क्रोधादि कषायों का परित्याग कर, समभाव धारण कर विचार व विवेकपूर्ण संयम का पालन करना चाहिए। अहिंसा शब्द में निषेधात्मक प्रत्यय लगने पर भी यह दयाभाव के दर्शन का द्योतक है। जैन दर्शन क्योंकि चेतना के सातत्य में आस्था रखता है अतः उसके अनुसार किसी भी मनुष्य को किसी प्राणी की प्रगति में बाधा डालने का अधिकार नहीं है। पीड़ा पहुंचाने का अर्थ स्पष्ट रूप से बाधा डालना है अत: बाधक न बनना नैतिक माना गया है। ___ यद्यपि अहिंसा व्रत के अन्तर्गत स्पष्ट एवं सर्वांगीण विकास निहित है तथापि इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि इस सिद्धान्त की भी आलोचना की गयी है। मोनियर विलियम्स ने लिखा है कि अहिंसा के पालन में जैन लोग अन्य सभी भारतीय सम्प्रदायों से आगे हैं और इसे असंगति की सीमा तक पहुंचा दिया है। श्रीमती स्टीवेन्सन का मत है कि अहिंसा का नियम वैज्ञानिक दृष्टि से असम्भव है, क्योंकि यह प्रकृति के नियम के विरुद्ध है। किन्तु इन विद्वानों का विदेशी होने के कारण जैन धर्म की पृष्ठभूमि से पूर्ण परिचय नहीं है। देवताओं को प्रसन्न करने के नाम पर यज्ञों में निरीह पशुओं के वध के प्रति जैनों का दृष्टिकोण प्रतिक्रियात्मक रहा है। अतः प्राणियों के जीवन को संरक्षित करने के लिए सहानुभूतिपूर्वक जैनों ने आवाज उठायी। उसका प्रभाव भारतीय नीतिशास्त्र पर पड़ा है। सर्वमृषावाद विरमण अर्थात् सत्य सत्य का तात्पर्य होता है वस्तुस्थिति को यथातथ्य प्रस्तुत करना। किन्तु जैन धर्म में सत्य का लक्ष्य इतना ही नहीं अपितु अहिंसा की रक्षा करना है। सिद्धान्त रूप में सत्यानुभूति के अनुरूप आचरण ही अहिंसा है। हम सब प्राणी एक ही परम शक्ति से उद्भूत हैं अत: भाई-भाई हैं। बन्धुत्व अनुसार व्यवहार ही वस्तुत: अहिंसा है। अहिंसा वह साधन है जो सत्यानुभूति के साध्य तक ले जाता है और अन्ततः पूर्ण अहिंसक बना देता है। ___ अहिंसा की रक्षा के लिए आवश्यक है कि प्राणी अप्रिय वचन नहीं बोले, क्योंकि कठोर एवं अप्रिय वाणी कष्ट का हेतु बनती है और हिंसाकारक होती है। इसलिए जैन धर्म में जो वचन दूसरों को कष्ट पहुंचाने का हेतु बनता है वह सत्य होने पर भी असत्य कहलाता है। वैदिक धर्म में भी प्रिय सत्य बोलने की विधि है, अप्रिय सत्य बोलने का निषेध है सत्यं ब्रू यात प्रियं ब्रूयात न ब्रूयात सत्यं प्रियम्। प्रियं च ना नृतं ब्रूयात, एष धर्म सनातनम्॥
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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