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मनुष्य भूमि पर बैठा है, यहां भूमि आधार है और मनुष्य आधेय है। इसी प्रकार जो संग्रह करता है वह संग्राहक कहलाता है, और जिसका संग्रह किया जाता है, वह वस्तु संग्राहय कहलाती है।
. अगर तेल में मालपुआ छोड़ा जाय तो वहां आधार आधेयमान और संग्राह्य संग्राहक भाव-दोनों होंगे। तेल आधार और मालपुआ आधेय है और तेल संग्राह्य एवं मालपुआ उसका संग्राहक है।
सार यह है कि संसार की स्थिति किस प्रकार है? इस प्रकार का उत्तर शास्त्र में इस प्रकार दिया गया है कि जीव में और अजीव में-जो कि संसार रूप हैं आधार-आधेय भाव और संग्राह्य-संग्राहक भाव विद्यमान है। इसी से संसार की स्थिति है। मगर जब तक जीव कर्मयुक्त है, तभी तक वह ऐसा करता है, कर्म से मुक्त होने पर ऐसा नहीं करेगा। कर्मयुक्त होने के कारण जीव, अजीवों को भिन्न-भिन्न रूप प्रदान करता है। मनुष्य दूध पीता है। पेट दूध का आधार बना और दूध आधेय हुआ। परन्तु यदि पेट की अग्नि बुझ गई हो तो क्या होगा? अर्थात् संग्राह्य-संग्राहक भाव नहीं रहेगा। क्योंकि दूध हजम ही नहीं होगा। जठराग्नि दूध के खल भाग और रसभाग को अलग करती है, इसी से नाक, कान, आंख आदि के रूप में वह परिणत होता है। यह संग्राह्य-संग्राहक भाव की शक्ति है।
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१७६ श्री जवाहर किरणावली