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तीर्थ कहलाता है। ऐसे तीर्थ की स्थापना करने के कारण तीर्थंकर भगवान महावीर को 'आदिकर' कहा गया है।
नदी में से पानी लाया जाता है। पानी लाने वालों को असुविधा न हो, सरलता से पानी लाया जा सके, इस अभिप्राय से नदी के किनारे सीढ़ियां लगा दी जाती हैं अथवा दूसरी तरह से घाट बना दिया जाता है। घाट को भी तीर्थ कहते हैं। इसी प्रकार संसार - समुद्र से सुविधापूर्वक पार पहुंचने के लिए तीर्थ की स्थापना की गई है।
यों तो विशेष शक्ति वाले नदी को तैर कर पार कर सकते हैं, मगर पुल बन जाने पर चिउंटी भी नदी पार कर सकती है। पुल बनने से नदी पार करने में बहुत सुविधा होती है। इसी प्रकार संसार समुद्र को सुविधापूर्वक पार करने के लिए तीर्थ की स्थापना की जाती हैं । तीर्थ की स्थापना करने वाले महापुरुष तीर्थंकर कहलाते हैं। लौकिक समुद्र की तरह संसार समुद्र भी अनेक विध दुःखों से परिपूर्ण है। सभी जीवन दुःखमय संसार सागर को पार करना कठिन है। अतएव तीर्थंकर अवतरित होकर तीर्थ की स्थापना करते हैं। इस प्रकार संसार - सागर से पार उतरने के लिए पुल बनाने वाले ही तीर्थंकर कहलाते हैं ।
नदी पार करने के लिए बांधा हुआ पुल स्थूल नेत्रों से दिखाई देता है। मगर संसार को पार करने के लिए बांधा हुआ पुल कौन सा है ? इसका उत्तर यह है कि तीर्थकरों ने तीर्थ रूपी पुल बांधा है। सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन एवं सम्यक् चरित्र को प्रवचन कहते हैं । तीर्थंकर भगवान ने केवल ज्ञान उत्पन्न होने पर जगत् के कल्याण हेतु जो प्रवचन कहे और जिन प्रवचनों को गणधरों ने पूरी तरह धारण किया, उन प्रवचनों को तीर्थ कहते हैं। ऐसे तीर्थ की स्थापना करने वाले तीर्थंकर कहलाते हें।
भगवान् ने अपना तीर्थ इक्कीस हजार वर्ष तक चालू रहेगा, ऐसा बतलाया है। किन्तु तेरापंथ स्थापक अपने आपको ही तीर्थ की स्थापना करने वाले मानते हैं। उनका कथन है कि तीर्थ का विच्छेद हो गया था सो हमने फिर से इसकी स्थापना की है। 'मेरा तीर्थ इक्कीस हजार वर्ष चलेगा' भगवान् के इस कथन का अर्थ वे यह करते हैं कि शास्त्रार्थ ही इतने वर्ष चलेगा - साध् साध्वी, श्रावक और श्राविका का रूप तीर्थ पहले ही विच्छेद को प्राप्त हो जायेगा ।
विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि इस प्रकार का कथन भोले जीवों को भ्रम में डालने के लिए, उन्हें प्रलोभन देने के लिए और साथ ही अपने श्री भगवती सूत्र व्याख्यान
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