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अंश विच्छिन्न हो गया है। अतएव पदों की संख्या आदि में अन्तर पड़ जाना स्वाभाविक है। वर्णित विषयों में न्यूनता आ जाना भी स्वाभाविक है। ऊपर जो परिणाम एवं विषय का उल्लेख किया गया है वह प्राचीनकालीन है, जब सम्पूर्ण रूप से अंग शास्त्र उपलब्ध था।
प्रश्न-भगवान् महावीर अंतिम तीर्थंकर थे। उनसे पहले तेईस तीर्थंकर हो चुके थे। प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव थे। उन्होंने भी श्रुत- धर्म की प्ररूपणा की थी। ऐसी स्थिति में आदिकर्ता भगवान् ऋषभदेव को माना जाये अथवा भगवान् महावीर को? अथवा भगवान ऋषभदेव और भगवान महावीर में किसी प्रकार का मतभेद था? क्या दोनों के धर्म जुदे-जुदे थे? जिससे दोनों ही आदिकर्ता कहे जा सकते हैं। अगर दोनों की प्ररूपणा एक ही थी तो दोनों आदिकर्ता किस प्रकार कहे जा सकते हैं?
उत्तर-मतभेद सदा अल्पज्ञों में होता है। सर्वज्ञ भगवान् वस्तु के स्वरूप का पूर्ण रूप से और यथार्थ रूप से जानते हैं, अतः उनमें मतभेद की संभावना ही नहीं की जा सकती। भगवान ऋषभदेव और भगवान महावीर दो सर्वज्ञ थे, अतः उनमें किंचित भी मतभेद नहीं था। फिर भी दोनों धर्म के आदिकर्ता कहलाते हैं। यह बात एक उदाहरण से भली भांति समझ में आ सकेगी। मान लीजिए, किसी घड़ी में आठ दिन तक चलने वाली चाबी दी। घड़ी आठ दिन तक चलकर बंद होगी ही। उस समय घड़ी में जो चाबी भरेगा वह घड़ी की गति को पुनःकर्ता कहलाएगा या नहीं। उसी के प्रयत्न से बन्द हई घड़ी की गति की आदि होगी। इसी प्रकार तीर्थंकर भगवान् प्रवचन करते हैं। परन्तु प्रवचन का समय पूरा होने पर अर्थात् चाबी पूरी हो जाने पर दूसरे तीर्थंकर फिर चाबी देते हैं-प्रवचन करते हैं। बाईस तीर्थंकरों तक यह बात समझिए। तेईसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ का शासन ढाई सौ वर्ष तक चला। उसके बाद चौबीसवें और इस अवसर्पिणी काल के आदि तीर्थंकर भगवान महावीर ने चाबी भरी। भगवान् महावीर न होते तो जिन-शासन आगे न चलता। पर भगवान् महावीर ने प्रवचन रूपी घड़ी में चाबी देकर उसे चालू कर दिया। अतएव भगवान् महावीर श्रुतधर्म के आदिकर्ता कहलाए।
तीर्थंकर शब्द की व्याख्या अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि भगवान् महावीर ने चाबी किस प्रकार दी? वह आदिकर्ता क्यों कहलाए ? इसका उत्तर यह है कि भगवान तीर्थंकर थे। जिसके द्वारा संसार सागर सरलता से तिरा जा सकता है वह ८६ श्री जवाहर किरणावली