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8. अन्त कृद्दशा-इस अंग में तीर्थंकर आदि के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, राजा, माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, इहलौकिक-पारलौकिक ऋद्धिविशेष, भोगपरित्याग, दीक्षा, श्रुत ग्रहण, तप, उपधान, पडिमा, क्षमा आदि धर्म, सत्तरह प्रकार का संयम, क्रियाएं, समिति, गुप्ति, अप्रमादयोग, उत्तम स्वाध्याय और ध्यान का स्वरूप, चार कर्मों का क्षय, केवल ज्ञान की प्राप्ति, मुनियों द्वारा पाला हुआ पर्याय, मुक्ति गमन आदि का वर्णन है। इस अंग में एक श्रुतस्कन्ध, आठ वर्ग, दस अध्ययन, दस उद्देशन काल, दस समुद्देशन काल, तेईस लाख और चार हजार पद हैं।
9. अनुत्तरापपातिक-इस अंग में अनुत्तरोपपातिकों के नगर, उद्यान आदि आठवें अंग में वर्णित विषयों का निरूपण है। इस अंग में भी एक श्रुतस्कन्ध, दस अध्ययन, तीन वर्ग, दस उद्देशनकाल, दस समुद्देशनकाल, और सेंतालीस लाख आठ हजार पद हैं।
10. प्रश्न व्याकरण-एक सौ आठ प्रश्न, एक सौ आठ अप्रश्न, एक सौ आठ प्रश्नाप्रश्न, विद्या के अतिशय तथा नागकुमार एवं सुवर्णकुमार के साथ हुए संवाद । इस अंग में एक श्रुतस्कन्ध, पैंतालीस उद्देशनकाल, पैंतालीस समुद्देशनकाल, बानवे लाख और सोलह हजार पद हैं।
11. विपाकश्रुत-सुकृत और दुष्कृत कर्मों का फल । यह फल संक्षेप में दो प्रकार का है-दुःखविपाक और सुखविपाक। दस दुःखविपाक तथा दस सुखविपाक हैं। दुःखविपाक में, दुःखविपाक वालों के नगर उद्यान चैत्य, वनखण्ड, राजा, माता-पिता, भगवान् का समवरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, नगरगमन, संसार और एवं दुःखों की परम्परा का वर्णन है। सुखविपाक में सुखविपाक वालों के नगर आदि का वर्णन है। साथ ही उनकी ऋद्धि का भोगों के त्याग का, दीक्षा का, शास्त्र अध्ययन का, तप, उपधान, प्रतिमा (पडिमा), संलेखसना, भक्तप्रत्याख्यान पदोपगमन, देवलोकगमन, सुकुल में अवतार, बोधिलाभ और मुक्ति आदि विषयों का निरूपण किया गया है। इस अंग में बीस अध्ययन हैं। बीस उद्देशनकाल और बीस समुद्देशनकाल हैं। एक करोड़ चोरासी लाख और बत्तीस हजार पद हैं।
12. दृष्टिवाद-दृष्टिवाद अत्यन्त विशाल अंग है। उसमें समस्त पदार्थों की प्ररूपणा है। उसके पांच विभाग हैं -परिकर्म, सूत्र, पूर्व, अनुयोग और चालिका।
वर्तमान काल में बारहवां-अंग पूर्ण रूप से विच्छिन्न हो गया है। आज वह उपलब्ध नहीं है। शेष ग्यारह अंग उपलब्ध हैं, किन्तु उनका भी बहुत सा
- श्री भगवती सूत्र व्याख्यान ८५