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________________ उसकी अवज्ञा भी करे मगर उसकी पूज्यता में कमी नहीं होती। जैसे सूर्य में प्रकाश देने की स्वाभाविक शक्ति है, किसी के मानने या कहने से सूर्य प्रकाशक नहीं है, और यदि कोई धृष्टतापूर्वक सूर्य को प्रकाशक न माने तो भी उसका प्रकाश कम नहीं होता, उसी प्रकार भगवान् किसी के कहने से, किसी के बनाने से पूज्य नहीं बने हैं, किन्तु उनमें सहज पूज्यता विद्यमान है। यह बात दूसरी है कि जैसे किसी-किसी प्राणी को सूर्य का प्रकाश अच्छा नहीं लगता, उसी तरह कुछ लोगों को भगवान् का वैभव अच्छा न लगे। फिर भी जैसे सूर्य का उसमें कोई दोष नहीं है, उसी प्रकार अगर कुछ लोग भगवान् का वैभव न देख सकें तो इसमें भगवान का कोई दोष नहीं है। 'शूर-वीर विक्रान्तौ' धातु से वीर शब्द बना है। जो अपने वैरियों का नाश कर डालता है उस विक्रमशाली पुरुष को वीर कहते हैं। वीरों में भी जो महान् वीर है, वह महावीर कहलाता है। प्रश्न किया जा सकता है कि चक्रवर्ती राजा और साधारण राजा भी अपने शत्रुओं का नाश कर डालता है। फिर उन्हें वीर न कहकर भगवान् को ही वीर क्यों कहा गया है? महावीर में कौनसी वीरता थी? इस प्रश्न का समाध पान यह है कि भगवान् महावीर को न केवल वीर, वरन् महावीर कहा गया है। सब से बड़े वीर को महावीर कहते हैं। भगवान् को महावीर कहने का कारण यह है कि उन्होंने आन्तरिक शत्रुओं पर विजय प्राप्त की थी। बाह्य शत्रुओं को जीतने वाला वीर कहलाता है और आन्तरिक शत्रुओं को जीतने वाला महावीर कहलाता है। बाह्य शत्रुओं को स्थूल साधनों से, पाशविकशक्ति से, शस्त्र आदि की सहायता से जीतना आसान है। मगर आन्तरिक शत्रु जो इस प्रकार नहीं जीते जा सकते। उन्हें जीतने के लिए आध्यात्मिक बल की आवश्यकता होती है। आध्यात्मिक बल ही सच्चा बल है, क्योंकि वह पर-साधनों पर निर्भर नहीं है। भगवान् महावीर में आध्यात्मिक बल की पराकाष्ठा थी अतएव उन्हें महावीर कहते हैं। इसके अतिरिक्त आये हुए कष्टों को बिना घबराहट के सहन कर लेने वाला पुरुष 'वीर' कहलाता है। परन्तु भगवान् केवल आये हुए कष्टों को ही सहन नहीं करते थे, मगर साधक अवस्था में विशिष्ट निर्जरा के हेतु कभी-कभी कष्टों को इच्छापूर्वक आमंत्रित करते थे और उन कष्टों पर विजय प्राप्त करते थे। इस कारण साधारण वीर पुरुषों की अपेक्षा उनकी वीरता विलक्षण प्रकार ६० श्री जवाहर किरणावली
SR No.023134
Book TitleBhagwati Sutra Vyakhyan Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Aacharya
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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