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आंखें बनाई हैं, पर डाक्टर ने कितनी आंखें बनाई हैं ? संसार भर के डाक्टर मिलकर कुदरत के समान एक भी आंख नहीं बना सकते।
यहां आंखें पुण्य रूपी डाक्टर ने बनाई हैं। आंख की थोड़ी सी खराबी मिटाने वाले डाक्टर को याद करते हो उसके प्रति कृतज्ञ होते हो, तो उस पुण्य रूपी महान् डाक्टर को क्यों भूलते हो? पुण्य की इन आंखों से पाप तो नहीं करते? दुर्भावना से प्रेरित होकर परस्त्री की ओर तो नहीं ताकते? यह आंखें बुरे भाव से परस्त्री को देखने के लिए नहीं है।
___मनुष्य को जो शुभ संयोग प्राप्त हैं, अन्य जीवों को नहीं। मनुष्य -शरीर किस प्रकार मिला है, इसे जानने के लिए पिछली बातें स्मरण करो। अगर आप चिर-अतीत की घटनाओं पर दृष्टि-निपात करेंगे तो आपके रोम-रोम खड़े हो जाएंगे। आप सोचने लगेंगे -रे आत्मा! तुझे कैसी अनमोल वस्तु मिली है और तू उसका कितना जघन्य उपयोग कर रहा है? हे मानव! तुझे वह शरीर मिला है जिसमें अर्हन्त, राम आदि पुण्य पुरुष हुए थे। ऐसी अमूल्य एवं उत्तम वस्तु पाकर भी तू इसका दुरुपयोग कर रहा है। मानो यह शरीर तुच्छ है।
इस शरीर की तुलना में संसार की बहुमूल्य वस्तु भी नहीं ठहर सकती। एक मनुष्य-शरीर के सामने संसार की समस्त सम्पत्ति कोड़ी कीमत की भी नहीं है। ऐसा मूल्यवान् मानव-शरीर महान् कष्ट सहन करने के पश्चात् प्राप्त हुआ है। न जाने किन-किन योनियों में रहकर आत्मा ने मनुष्य योनि पाई है। अतएव शरीर का मूल्य समझो और प्राणी मात्र के प्रति समभाव धारण करो। आज तुम जिस जीव के प्रति घृणाभाव धारण करते हो, न जाने कितनी बार उसी जीव के रूप में तुम रह चुके हो। भगवान् का कथन इस सत्य का साक्षी है।
भगवान् अपने अतीत कालीन समस्त भवों को जानते थे, अतएव समस्त प्राणियों पर उनका समभाव था।
कहा जा सकता है कि गृहस्थी की झंझटों में फंसा हुआ मनुष्य समभाव कैसे धारण कर सकता है? और यदि वह समभावी बनता है तो अपना व्यवहार कैसे चला सकता है? समभाव धारण करने पर कैसे दुकान चलाई जायेगी? कैसे किसी को ठगा जायेगा? और कैसे जिया जायेगा? अतः समभाव का उपदेश चाहे साधुओं के लिए उपयुक्त हो, गृहस्थों के लिए नहीं।
लेकिन विचार करो की यह प्रणाली ही विपरीत है। यदि समभाव से संसार का काम नहीं चल सकता तो क्या विषमभाव से काम चलेगा? अगर ७४ श्री जवाहर किरणावली
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