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________________ भगवान् ने पृथ्वीकाय के जीवों से अपना संबंध दिखाना प्रारंभ करके, बढ़ते बढ़ते सब जीवों से अपना संबंध बताया है। कभी किसी ने सुना है कि भगवान् महावीर किसी जीवयोनि में नहीं रहे? प्रत्येक आत्मा अनादि काल से भव भ्रमण कर रही है । भगवान् की आत्मा भी अनादि काल से संसार में भ्रमण कर रही थी। उनके सिर्फ सत्ताइस भव ही देखने से काम नहीं चलेगा। यद्यपि उनके अनन्त भवों का वर्णन लिखा नहीं है, मगर केवल लिखी हुई बात कहना ही व्याख्यान नहीं है । भगवान् ने गौतम से कहा- हम और तुम पृथ्वीकाय में रह आये हैं। हम आ गये और हमारे कई साथी अभी वहीं पड़े हैं। उनके वहां पड़े रहने का कारण प्रमाद है और हमारे निकल आने का कारण प्रमाद का त्याग है । भगवान् के इस कथन का आशय यही है कि मूल रूप से सब जीव मेरे ही जैसे हैं। अगर प्रमाद का परित्याग करें तो भी परमात्मपद प्राप्त कर सकते हैं। धर्म का मुख्य ध्येय आत्म-विकास करना है। अगर धर्म से आत्मा का विकास न होता तो धर्म की आवश्यकता ही न होती । अतः भगवान् महावीर ने ऐसे धर्म का उपदेश दिया है जिससे तुच्छ से तुच्छ प्राणी भी अपना आत्मविकास साध सकता है। उन्होंने अपने अनेकानेक पूर्वभवों का उल्लेख करके और अंतिम जीवन में अतिशय साधना करके आत्मविकास की शक्यता प्रकट की है। उनके अतीत और अंतिम जीवन मनुष्य को महान् आश्वासन देने वाले एवं मार्गदर्श हैं। उन्होंने अपने जीवन व्यवहार द्वारा एवं धर्मदेशना द्वारा आत्मा को परमात्मा बनने का नर को नारायण बनने का एवं भक्त को स्वयं भगवान् बनने का मार्ग बताया है। मगर उस मार्ग पर चलने के लिए प्रमाद का परित्याग करना परमावश्यक है। 1 प्रकृति पर ध्यान देकर देखो तो प्रतीत होगा कि प्रकृति ने जो कुछ किया है, उसका एक अंश भी संसार के लोगों ने नहीं किया है। मगर लोग प्रकृति की पूजा तो करते नहीं और संसार के लोगों की पूजा करते हैं। खराब हुई एक आंख अगर किसी डाक्टर ने ठीक कर दी तो लोग उस डाक्टर के आजीवन ऐहसानमंद रहते हैं। मगर जिस कुदरत ने आंखें बनाई हैं उसको जीवन भर में एक बार भी शायद ही याद करते हैं । कुदरत द्वारा बनी हुई आंख की जरा सी खराबी दूर करने वाले को श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता है, किन्तु कुदरत ने आंख ही न बनाई होती तो डाक्टर क्या करता ? कुदरत ने असंख्य श्री भगवती सूत्र व्याख्यान ७३
SR No.023134
Book TitleBhagwati Sutra Vyakhyan Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Aacharya
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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