________________
राजगृह नगर में नागरिक इस बात की बड़ी सावधानी रखते थे कि हमारे नगर में आकर कोई उदास न रहे।
अवकाश के अभाव से राजगृह नगर का विशेष वर्णन नहीं किया जा सकता। उसका ठीक तरह वर्णन करने के लिए काफी समय की आवश्यकता है। उववाई सूत्र में जो वर्णन चम्पा नगरी का दिया गया है, वही वर्णन यहां समझ लेना चाहिए। उस वर्णन से तात्कालिक नागरिक जीवन की अनेक विशेषताओं पर प्रकाश पड़ता है।
'तस्स णं रायगिहस्स णयरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीमाए गुणसिलए णाम चेइए होत्था।'
इस पाठ में 'रायगिस्स णयरस्स' यहां षष्ठी विभक्ति का प्रयोग किया गया है मगर होनी चाहिये थी पांचवीं विभक्ति । प्राकृत भाषा की शैली की विचित्रता के कारण ऐसा प्रयोग किया गया है। अतएव 'राजगृह नगर से बाहर उत्तर पूर्व दिग्भाग में गुणशील नाम चैत्य था ऐसा अर्थ करना चाहिए।
यहां चैत्य शब्द के अर्थ पर विचार करना आवश्यक है। "चिञ् चयने" धातु से चैत्य शब्द बना है। लेपन करने को या संग्रह करने को 'चिति' कहते है तथा लेपन या संग्रह करने के कर्म को 'चैत्य' कहते हैं। मतलब यह है कि उपचय रूप वस्तु 'चैत्य' कहलाती है।
शव का अग्नि संस्कार करने के लिए लकड़ियों का जो उपचय किया जाता है उसे 'चिता' कहते हैं। चिता संबंधी को 'चैत्य' कहते हैं। यह संज्ञा शब्द है। पहले इसी अर्थ में चैत्य शब्द का प्रयोग होता था। मगर जब मूर्ति पूजा का पक्ष प्रबल हुआ तो इस अर्थ में खींचतान होने लगी। उस समय मूर्ति को और मूर्ति से संबंध रखने वाले मकान को भी चैत्य कहा जाने लगा। मगर जब मूर्ति नहीं थी तब भी 'चैत्य' शब्द का प्रयोग होता था। इससे यह स्पष्ट है कि 'चैत्य' शब्द का अर्थ मूर्ति नहीं है। जब तक मूर्ति नहीं थी तब तक 'चैत्य' शब्द साफ और व्युत्पत्ति संगत अर्थ किया जाता था मगर मूर्ति का पक्ष आने पर संज्ञा शब्द 'चैत्य' को रूढ़ मान लिया। 'चैत्य' शब्द का अर्थ ज्ञान अथवा साधु भी होता है।
'चिती-संज्ञाने' धातु से भी चैत्य शब्द बनता है। अतः ज्ञानवान् को चैत्य कहा जाता है। दिगम्बर सम्प्रदाय के मुख्य आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है
बुद्धं जं बोहन्तो अप्पाणं वेइयाइ अण्णं च । पंचमह व्वयसुद्धं, णाणमयं जाणं चेदिहरं ।।
षट्प्रामृत, बोधप्राभूत, ६८ श्री जवाहर किरणावली -