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अर्थात्-साधुओं को बुद्ध कहना चाहिए। जो स्वयं को तथा दूसरों को बोध देते हैं, जिनके पांच महाव्रत हैं, उन्हें चैत्यग्रह मन्दिर समझो।
चैत्य रूप ज्ञान जहां पर हो उसे 'चैत्यालय' कहते हैं।
यहां जिस गुणशील नाम 'चैत्य' का उल्लेख आया है, उसके संबंध में टीकाकार आचार्य स्वयं लिखते है कि वह व्यन्तर का मन्दिर था, अर्हन्त का नहीं।
___ मूर्ति पूजक भाई जहां कहीं 'चैत्य' शब्द देखते हैं, वहीं अर्हन्त का मन्दिर अर्थ समझ लेते हैं। उनकी यह समझ अपने आराध्य आचार्य के कथन से भी विरुद्ध है।
मूल-ते णं काले णं ते णं समए णं समणे भगवं महावीरे, आइगरे, तित्थयरे, सहसंबुद्धे, पुरिसुत्तमे, पुरिससीहे, पुरिसवरपुंडरीए, पुरिसवरंगंधहत्थी, लागुत्तमें, लोगनाहे. (लोगहिए). लोगपईवे, लोगपज्जोयगरे, अभयदए, चम्खुदए, मग्गदए, सरणदए(बोहिदए) ६ म्मदए, धम्मदेसए. (धम्मनायगे), धम्मसारही, धम्मवरचाउरंतचक्वट्टी, अप्पाडिहयवरनाण- दंसणधरे, वियदृछउमे, जिणे, जाणए, बुद्धे, बोहए, मुत्ते, मोयए. सव्वण्णू सव्वदरिसी, सिवमयलमरुअमणन्तमक्खयमव्वावाहमपुणरावित्तियं, सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपाविउकामे जाव समोसरणं ! .........परिसा निग्गया ! .......धम्मो कहिओ !....... परिसा पडिगया।
संस्कृतच्छाया-तस्मिन् काले, तसिमन् समये श्रमणो भगवान् महावीरः, आदिकरः, तीर्थंकरः, सहसंबुद्धः, पुरुषोत्तमः पुरुषसिंहः, पुरुषवरपुण्डरीकम्, पुरुषवरगन्धहस्ती, लोकोत्तमः, लोकनाथः (लोकहितः) लोकप्रदीपः, लोकप्रद्योतकरः, अभयदयः, चक्षुर्दयः, मार्गदयः, शरणदयः, (बोधिदयः.) धर्मदयः, धर्मदेशकः,(धर्मनायकः,).धर्मसारथिः, धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ति, अप्रतिहतवरज्ञान-दर्शनघरः, व्यावृत्तछमा, जिनः, ज्ञायकः, बुद्धः,बोधकः,मुक्तः,मोचकः,सर्वज्ञः, सर्वदर्शीशिवम चलमरुजमनन्तमक्षयमव्याबाधमपुनरावृत्तिकं सिद्धिगतिनाम-धेयं स्थानं संप्राप्तुकामः, यावत् समवसरणं। पर्षद निर्गता। धर्मः कथितः। पर्षद् प्रतिगता।
___ शब्दार्थ-उस काल में, उस समय में श्रमण भगवान् महावीर, आदि कर, तीर्थंकर सहसंबुद्ध-स्वयं तत्व के ज्ञाता, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुरुषवरपुण्डरीक-पुरुषो में उत्तम कमल के समान, पुरुषवर गंधहस्ती-पुरुषों
श्री भगवती सूत्र व्याख्यान ६६