________________
जिस ऋद्धि आदि से सम्पन्न था, वह ऋद्धि आदि सुधर्मा स्वामी के समय में ज्यों की त्यों नहीं थी। यद्यपि भगवान् महावीर के समय में और सुधर्मा स्वामी द्वारा इस सूत्र की वाचना देने के समय में बहुत बड़ा अंतर नहीं था, तथापि थोड़े से समय में भी कुछ न्यूनता आ ही गई थी। इसी अभिप्राय से सुधर्मा स्वामी ने 'राजगृह नगर है' ऐसा न कहकर 'राजगृह नगर था ऐसा कहा है।
इस अवसर्पिणी काल में, पहले शुभ भावों का जैसा प्रादुर्भाव था, वैसा आज नहीं है। लोग आज भी कहते हैं 'अब वह दिल्ली कहां हैं?' अर्थात् स्थान चाहे वही हो, नाम भी वही हो, पर रचना वह नहीं रही। इसी प्रकार सुधर्मा स्वामी के कथन का अभिप्राय यह है कि भगवान् महावीर के समय का राजगृह नगर जैसा था, अब वैसा नहीं है। इस अवस्था भेद को सूचित करने के लिए ही उन्होंने भूतकाल का प्रयोग किया है।
राजगृह नगर ऋद्धि और समृद्धि से भरपूर था। नगर के आस-पास के ग्राम, नगर के महल, भवन आदि नगर की ऋद्धि में गिने जाते हैं और नगर धनधान्य से परिपूर्ण था, वह नगर की समृद्धि कहलाती है।
राजगृह नगर स्वचक और परचक के भय से रहित था। अर्थात् वहां के निवासी नागरिकों में ऐसे गुण मौजूद थे कि राजा चाहे स्वचक्री हो या परचक्री, वह प्रजा को सताने-दबाने की हिम्मत नहीं कर सकता था। वहां के नागरिक आलसी अथवा पुरुषार्थहीन नहीं थे। इसके अतिरिक्त वहां के निवासियों में एक गुण यह भी था कि वे सदा प्रमुदित प्रसन्न रहते थे। जहां हर्ष है, उत्साह है, वहां सब प्रकार की ऋद्धि आप ही आकर बसेरा लेती है। उत्साही मनुष्य किसी प्रिय वस्तु का वियोग होने पर भी रोता झीकता नहीं है और उत्साहहीन मनुष्य उस वस्तु की मौजूदगी में भी रोने से बाज नहीं आता। इस प्रकार जब तक उत्साह न हो, किसी भली वस्तु का होना न होना समान है। राजगृह नगर के निवासी उत्साही थे, इस कारण प्रसन्नचित्त रहते थे। इतना ही नहीं, वरन् दूसरी जगह जो मलीन बदन आते थे, वह भी राजगृह में पहुंचकर हर्षित हो जाते थे। जैसे ताप से पीड़ित पुरुष किसी शीतल उद्यान में पहुंचकर हर्षित हो जाता है, उसी प्रकार अगर कोई दीन-दुखिया, भूखा-प्यासा राजगृह में आ जाता था तो वह भी हर्षित हो जाता था।
बाहर से आये हुए लोग जिस ग्राम से उदास होकर लौटते हैं, वह ग्राम हतभाग्य कहलाता है। इसके विपरीत जिस ग्राम में पहुंचकर बाहर के लोग प्रमुदित हो उठें तथा उस ग्राम की प्रशंसा करें, वह ग्राम सद्भागी माना जाता है।
- श्री भगवती सूत्र व्याख्यान ६७