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________________ राजगृह नगर आराम, उद्यान, कूप, तालाब, दीर्घिका (बावड़ी) और पानी की क्यारियों (नहरों) के सौन्दर्य से समन्वित था । वह नन्दन वन के समान प्रकाश वाला थ। नगर के चारों ओर विशाल, गंभीर गहरी और ऊपर नीचे समान खोदी हुई खाई थी। वह नगर चक्र, गदा मुसंढि ( शस्त्र विशेष ) उरोह (छाती को हनन करने वाला शस्त्र) शतघ्नी (सौ को मारने वाली तोप) और एक साथ जुड़े हुए तथा छिद्ररहित किंवाड़ों के कारण दुष्प्रवेश था। वह नगर वक्र धनुष की अपेक्षा भी अधिक वक्र किले से व्याप्त था । वह बनाये हुए और विभिन्न आकार वाले गोल कंगूरों से सुशोभित था । वह अट्टालिकाओं से, किले और नगर के बीच की आठ हाथ चौड़ी सड़कों से, किले और नगर के द्वारों से और तोरणों से उन्नत एवं पृथक-पृथक् राज मार्ग वाला था। उस नगर का सुदृढ़ परिध और इन्द्रकील चतुर शिल्पकारों द्वारा बनाया गया था । उसमें बाजार और व्यापारियों के स्थान थे और शिल्पकारों से भरा हुआ निर्वृत और सुखरूप था। वह नगर त्रिकोण स्थानों से तथा त्रिक (जहां तीन गलियां मिलें), चौक और चत्वर (जहां अनेक रास्ते मिलें ) किराने की दुकान और विविध प्रकार की वस्तुओं से मंडित था । सुरम्य था । वहां का राजमार्ग राजाओं से आकीर्ण था। अनेक बढ़िया-बढ़िया घोड़ों से, मत्त हाथियों से, रथ के समूहों से, शिविकाओं से और सुखपालों से वहां के राजमार्ग खचाखच भरे रहते थे, यानों से तथा युग्मों से दो हाथ की वेदिका वाले वाहनों से युक्त एवं नवीन कमलिनियों से वहां का पानी सुशोभित था। वह नगर धवल और सुन्दर भवनों से सुशोभित था। ऊंची आंखों से देखने योग्य था । मन को प्रसन्नता देने वाला दर्शनीय अभिरूप और प्रतिरूप था । निर्मल थे। पूर्वकालीन नागरिक जीवन, आज जैसा नहीं था । प्राचीन वर्णनों से स्पष्ट प्रतीत होता है कि उस समय का नागरिक जीवन, आज के नागरिक जीवन से कहीं अधिक उन्नत सम्पन्न, शान्तिपूर्ण और व्यस्तता से रहित था । पहले के नागरिक ऋद्धि से सम्पन्न होने पर भी निरुपद्रव थे । राजा चाहे स्वचक्री हो, या परचक्री, परन्तु प्रजा के साथ उसका सम्बन्ध ममतामय होता था। राजा की ओर से प्रजा को किसी प्रकार का कष्ट नहीं पहुंचने पाता था। इसका कारण केवल राजा की कृपालुता ही नहीं थी, वरन् प्रजा का बल भी था । उस समय की प्रजा शक्तिशाली थी । शक्तिशाली होने पर भी अगर उसमें गुंडापन होता तो वह आपस में ही लड़ मरती पर ऐसा नहीं था । प्रजा में खूब शान्ति थी । इसी कारण प्रजा का जीवन उपद्रवहीन था । वास्तव में निर्बल प्रजा उपद्रवहीन नहीं हो सकती । निरुपद्रवता, शक्ति का फल है । ६४ श्री जवाहर किरणावली
SR No.023134
Book TitleBhagwati Sutra Vyakhyan Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Aacharya
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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