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समय से अभिप्राय नहीं है। यहां लोकोत्तर काल और लोकोत्तर समय की विवक्षा की गई है। दोनों शब्दों के अर्थ में भेद भी है। जैसे लोक व्यवहार में सम्वत् और मिति दोनों का प्रयोग किया जाता है-दोनों के बिना, सिर्फ सम्वत् या मिति मात्र लिखने से, पत्र या बही-खाता प्रमाणिक नहीं माना जाता; उसी प्रकार लोकोत्तर पक्ष में सम्वत् के स्थान पर काल और मिति के स्थान पर समय का प्रयोग किया गया है।
कहा जा सकता है कि लौकिक सम्वत् और मिति तो जगत्-प्रसिद्ध हैं पर लोकोत्तर काल और समय क्या है? इस का उत्तर यह है कि जैन शास्त्रों में तीन प्रकार के काल माने गये हैं हीयमान, वर्द्धमान और अवस्थित। जिस काल में निरन्तर क्रमशः जीवों की अवगाहना, बलवीर्य आदि की हानि घटती होती जाती है वह हीयमान काल कहलाता है। जिस काल में निरन्तर पूर्वोक्त बातों की वृद्धि होती जाती है वह वर्द्धमान काल कहलाता है और जिस काल में न हानि होती है, न वृद्धि होती है वह अवस्थित काल कहलाता है। हीयमान और वर्द्धमान काल की प्रवृत्ति भरत, ईरवत क्षेत्र में होती है और अवस्थित काल की महाविदेहादि में। वहां सदा प्रारम्भिक चतुर्थ काल के भाव बर्तते हैं यहां भरत क्षेत्र होने से अवसर्पिणी उत्सर्पिणी की प्रवृत्ति होती है।
श्री सुधर्मास्वामी ने 'यह काल' कह कर हीयमान काल अर्थात् अवसर्पिणी काल को सूचित किया है। अवसर्पिणी काल दस क्रोड़ाक्रोड़ी सागरोपम का होता है। इसी तरह उत्सर्पिणी काल अर्थात् वर्द्धमान काल भी दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का कहा गया है। दोनों कालों की (मिलकर) 'कालचक्र' संज्ञा है। एक कालचक्र बीस क्रोड़ा-क्रोड़ी सागरोपम का होता है। कालचक्र की यह कल्पना जैन शास्त्रों की ही नहीं है, मगर अन्य शास्त्रों में भी ऐसी ही कल्पना की गई है। ज्ञानियों ने काल के संबंध में बहुत सूक्ष्म विचार किया है। जैसे लोक में एक साल होता है, उसी प्रकार लोकोत्तर में चार कोड़ा कोड़ी सागरोपम का, तीन कोड़ा कोड़ी सागरोपम का, दो कोड़ा कोड़ी सागरोपम का अथवा इससे कम का एक काल होता है।
ऊपर जिस हीयमान और वर्द्धमान काल का उल्लेख किया गया है, वह यहां क्रमशः एक दूसरे के पश्चात् प्रवृत्त होता रहता है। हीयमान अर्थात् अवसर्पिणी के पश्चात वर्द्धमान अर्थात उत्सर्पिणी, और उत्सर्पिणी के पश्चात अवसर्पिणी काल प्रवृत्त होता है। नैसर्गिक नियम के अनुसार दोनों काल सदा प्रवृत्ति कर रहे हैं। इस समय अवसर्पिणी काल चल रहा है। अवसर्पिणी काल और उत्सर्पिणी काल के छह-छह आरे हैं। प्रत्येक काल दश-दश क्रोडाकोड़ी
श्री भगवती सूत्र व्याख्यान ६१