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ने श्रुत रूपी तीर्थ को नमस्कार किया है । अर्हन्त भगवान् वैसा ही आचरण करके भव्य जीवों के सामने आदर्श उपस्थित करते हैं, जिससे उनका कल्याण हो सके ।
अर्हन्त, सिद्धों को नमस्कार करते हैं, सो इसलिए कि अन्य जीव सिद्धों को नमस्कार करके अपना हित साधन करें । अर्हन्त भगवान् तो अपने अन्तराय कर्म का पूर्ण रूप से क्षय कर चुके हैं । अन्तराय कर्म के अभाव में उनके लिए कोई विघ्न उपस्थित नहीं हो सकता । अतएव विघ्न का उपशम करने के लिए अर्हन्त को, सिद्धों को नमस्कार करने की आवश्यकता नहीं है । सिद्धों को नमस्कार करने से होने वाले फल की भी अर्हन्तों को आवश्यकता नहीं है। फिर भी छद्मस्थ जीवों के सामने सिद्धों को नमस्कार करने का आदर्श उपस्थित करने के हेतु ही अर्हन्त सिद्ध भगवान् को नमस्कार करते हैं।
आशय यह है कि भगवती सूत्र के प्रथम शतक की आदि में गणधर ने 'नामे सुअस्स' कह कर श्रुत की महत्ता प्रदर्शित करने के लिए ही श्रुत को नमस्कार किया है। इस प्रकार नमस्कार करने से श्रुत पर भव्य जीवों की श्रद्धा बढ़ेगी, भव्य जन श्रुत का आदर करेंगे और एक-एक वचन को आदर के साथ चुनेंगे। इसी आशय से प्रेरित होकर श्रुत को नमस्कार किया गया है। प्रकृत शास्त्र का आरम्भ किस प्रकार हुआ है, यह आगे बतलाया जायेगा ।
मूल - तेणं कालेणं, तेणं समएणं रायगिहे णामं णयरे होत्था । वण्णओ, तस्स णं रायगिहस्स णयरस्स बहिया उत्तर पुरत्थिमे दिसीमाए गुणसिलए णामं चेइए होत्था । सेणिए राया । चिल्लणा देवी ।
संस्कृतच्छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये (तेन कालेन, तेन समयेन राजगृहं नाम नगरमभवत् । वर्णकः । तस्य राजगृहस्य नगरस्य बहिरुत्तर–पौरस्तये दिग्भागे गुणसिलकं नाम चैत्यमभवत् । श्रेणिको राजा । चिल्ला देवी ।
शब्दार्थ-उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था । वर्णक। उस राजगृह नगरके बाहर उत्तर पूर्व के दिग्भाग में अर्थात् ईशान कोण में गुणसिलक नामक चैत्य (व्यन्तरायतन ) था । वहां श्रेणिक राजा और चिल्लणा देवी रानी थी।
विवेचन - यहां सर्वप्रथम यह प्रश्न हो सकता है कि काल और समय दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। फिर यहां काल और समय का भिन्न-भिन्न उल्लेख क्यों किया गया है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि यहां लौकिक काल और
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श्री जवाहर किरणावली