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(9) गुरूक - नौंवें उद्देशक में गुरु कर्म संबंधी प्रश्नोत्तर हैं। जैसे जीवन भारी हल्का कैसे होता है, इत्यादि । इसीलिए इस उद्देशक का नाम 'गुरूक' है ।
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(10) चलना - दसवें उद्देशक में 'जो चल रहा है वह चला नहीं इस संबंध में प्रश्नोत्तर होंगे। इस कारण उसका नाम 'चलना' है।
यह प्रथम शतक के उद्देशकों के संग्रह - नाम हैं । इन संग्रह नामों को सुनकर शिष्य ने श्री सुधर्मा स्वामी से पूछा- कि सर्वप्रथम गौतम स्वामी ने चलन प्रश्न पूछा है। मगर वह प्रश्न और उसका उत्तर क्या है ? अनुग्रह करके विस्तारपूर्वक समझाइए। तब सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी को विस्तार से समझाने लगे।
प्रथम उद्देशक का मंगल
यद्यपि प्रस्तुत शास्त्र की आदि में मंगल किया जा चुका है, फिर भी प्रथम शतक के प्रथम उद्देशक की आदि में विशेष रूप से पुनः मंगल किया गया है । इस मंगल को करने का कारण यह नहीं कि शास्त्र अमांगलिक है, अतएव मंगल करके उसे मांगलिक बनाया जाये । किन्तु शास्त्र मांगलिक है, इसी कारण यहां मंगल किया गया है। किसी की पूजा इस कारण नहीं की जाती है कि वह पूजा के अयोग्य है वरन् जो पूजा योग्य होता है उसी की पूजा की जाती है। जिस प्रकार पूजा के योग्य होने से पूजा की जाती है, उसी प्रकार मंगल के योग्य होने से सूत्र के लिए मंगल किया जाता है। श्री सुधर्मास्वामी कहते हैं
नमो अस्स
अर्थात् श्रुत भगवान् को नमस्कार हो ।
जिसके आचारांग, सूत्रकृतांग आदि बारह अंगरूप भेद हैं, अर्हन्त भगवान् के अंग रूप जो प्रवचन किये हैं, ऐसे श्रुत को नमस्कार हो ।
यहां यह प्रश्न किया जा सकता है कि इष्ट देव को नमस्कार करना मंगल कहा जा सकता है? श्रुत, इष्ट देव नहीं है। तब उसे नमस्कार क्यों किया गया है? श्रुत इष्ट देव की वाणी है। मगर प्रकृत श्रुत जिन इष्ट देव की वाणी है उन्हें नमस्कार न करके श्रुत को नमस्कार करने का क्या अभिप्राय है? क्या इष्ट देव की अपेक्षा इष्ट देव की वाणी को नमस्कार करना अधिक महत्वपूर्ण और अधिक फलदायक है? अगर ऐसा न हो तो फिर इष्ट देव को छोड़कर श्रुत को नमस्कार करने में क्या उद्देश्य है ?
श्री भगवती सूत्र व्याख्यान ५७