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व्याख्या की गई है वह अर्थ वाच्य है और शास्त्र उनका वाचक है। इस प्रकार वाच्यवाचक भाव सम्बन्ध भी यहां विद्यमान है।
सूत्र के आरम्भ में आचार्य ने चार बातें बताने की प्रतिज्ञा की थी। वह चारों बातें बतला दी गई हैं। इसके अनन्तर आचार्य कहते हैं कि- इस शास्त्र में सौ से भी अधिक अध्याय हैं। अध्याय कहिए या शतक कहिए, एक ही बात है। अन्य शास्त्रों के विभाग अध्ययन या अध्याय कहलाते हैं, इस शास्त्र के शतक कहलाते हैं। इस शास्त्र में दस हजार उद्देशक हैं। इस में छत्तीस हजार प्रश्न और दो लाख अट्ठासी हजार पद हैं।
यद्यपि शास्त्र का यह परिणाम शास्त्र में ही उपलब्ध होता है, फिर भी यह ध्यान रखना चाहिए कि यह परिणाम उस समय का है, जब भगवान ने उसका उपदेश दिया था। उस समय उस शास्त्र के उतने ही उद्देशक और पद थे। किन्तु जब यह लिपिबद्ध हुआ तब का परिणाम निराला है।
प्रत्येक अध्याय-शतक को सरलता से समझने के लिए और सुख-पूर्वक धारण करने के लिए विभक्त करके उद्देशकों में बांट दिया गया है। इसके अतिरिक्त आचार्य जब शास्त्र पढ़ाते थे तक उपधान अर्थात् तप कराते थे। यह प्रथा अब भंग हो गई है। परन्तु प्राचीनकाल में यह नियम था कि अमुक उद्देशक को पढ़ते समय इतनी तपस्या की जाये। तात्पर्य यह है कि अध्याय के अवान्तर विभाग उद्देशक कहलाते हैं। आचार्य तप के विधान के साथ शिष्य को जो उपदेश आदेश दें कि इतना पढ़ो, उसी का नाम उद्देशक है। जैसे अन्यान्य ग्रन्थों में पाठ या प्रकरण होते हैं, वैसे ही इस शास्त्र में उद्देशक हैं। इनके उद्देशकों के होने से शास्त्र का अध्ययन करने में सुभीता होता है।
श्री भगवती सूत्र व्याख्यान ५५