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________________ इस प्रश्न का उत्तर यह है कि स्वर्ग-नरक आदि का वर्णन पुण्य और पाप का फल बतलाने के लिए किया गया है। पुण्य-पाप का फल बतलाकर अन्त में दोनों से अतीत होने का ही उपदेश दिया है। इस प्रकार मोक्ष का विवेचन करने के लिए ही स्वर्ग आदि का वर्णन शास्त्र में पाया जाता है। कुछ लोगों को यह पेशोपेश होता है कि स्वर्ग और नरक हमें दिखाई नहीं देता, तब उन पर विश्वास किस प्रकार किया जाये? यही बात अहमदनगर के एक वकील ने मुझसे इस प्रकार पूछी थी-'अगर हम स्वर्ग, नरक को स्वीकार न करें तो क्या हानि है? मैंने कहा-अगर स्वर्ग-नरक स्वीकार कर लें तो क्या हानि है? वकील बोले-'हमने देखे नहीं, इसी से स्वीकार करने में संकोच होता मैंने पूछा-'स्वर्ग-नरक नहीं हैं, यह तो आपने देख लिया है?' वकील-'नहीं।' मैं-फिर आपकी बात सही और उन सर्वज्ञ-ज्ञानियों की बात झूठी, यह क्यों? ज्ञानियों को झूठा बनाने का दोष तुम्हें लगता है या नहीं? तात्पर्य यह है कि ज्ञानियों के वचन पर प्रतीति करके कोई हानि नहीं उठा सकता। कदाचित् ज्ञानी स्वर्ग-नरक का स्वरूप बतलाकर किसी प्रकार का प्रलोभन देते, तब तो उनके वचन पर अप्रतीति करने का कारण मिल सकता था, मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया है। उन्होंने पुण्य-पाप का फल बतलाते हुए स्वर्ग-नरक के स्वरूप का दिग्दर्शन करा दिया है और दोनों से परे हो जाने का उपदेश दिया है। मान लीजिए, एक जौहरी ने धोखे में आकर खोटा नग खरीद लिया, तत्पश्चात् उसे अपनी भूल मालूम हुई। वह जौहरी सरल भाव से दूसरे जौहरियों को वो खोटा नग बतलाकर कहता है कि 'देखिए' इस रूप रंग का नग भी खोटा होता है। आप लोग सावधान रहें। क्या इस प्रकार सावधान करने वाला जौहरी अविश्वास के योग्य है? नहीं। अगर जौहरी अपने खोटे नग को सच्चे नग के भाव में बेचने का प्रयत्न करता है तो अवश्य दोष का पात्र है, मगर नहीं खरीदने के लिए सावधान करने वाला जौहरी जरूर विश्वास का भाजन है। इसी प्रकार ज्ञानियों ने स्वर्ग-नरक बताकर उनके लिए लालच दिया होता तो कदाचित् उन पर अविश्वास भी किया जाता, मगर उन्होंने तो दोनों को त्यागने का ही उपदेश दिया है। ज्ञानीजन स्पष्ट स्वर में कहते हैं कि-पुण्य, ऋद्धि, सुख आदि में मत भूलना। यह सब झूठा है। मृग-तृष्णा है। मोह है। सच्चा सुख मोक्ष में ही है। उसी का साधन करने में कल्याण है। श्री भगवती सूत्र व्याख्यान ५३
SR No.023134
Book TitleBhagwati Sutra Vyakhyan Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Aacharya
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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