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किया, किन्तु अनवस्था दोष के भय से मंगल को मांगलिक बनाने के लिए दूसरा मंगल नहीं किया तो जैसे मंगल रूप शास्त्र पृथक् मंगल के बिना अमंगल रूप गिना जाता है उसी प्रकार शास्त्र के लिए किया हुआ मंगल भी पृथक् मंगल के अभाव में अमंगल रूप ठहरता है। तात्पर्य यह है कि अनवस्था दोष स्वीकार न करने पर भी न्याय की समानता को देखते हुए यह बात तो माननी ही होगी कि जैसे मंगल रूप शास्त्र भी बिना मंगल के मंगल रूप नहीं बनता, उसी प्रकार शास्त्र को मंगल रूप बनाने के लिए किया हुआ मंगल भी दूसरे मंगल के अभाव में मंगल रूप नहीं हो सकेगा। जब मंगल स्वयं अमंगल रूप होगा तो उससे शास्त्र मंगल रूप कैसे बन सकता है?
कदाचित् शास्त्र को मंगल रूप माना जाये और शास्त्र के लिए किये हुए मंगल को भी बिना अन्य मंगल के-मंगल माना जाये अर्थात् शास्त्र को
और शास्त्र के लिए किये गये मंगल को समान रूप से मंगल रूप माना जाये तो फिर मंगलाभाव दोष आता है। क्योंकि आप यह स्वीकार करते कि शास्त्रमंगल दूसरे मंगल के बिना मंगल रूप नहीं होता। जब शास्त्र मंगल दूसरे मंगल के बिना मंगल रूप नहीं होता तो यह दूसरा मंगल भी तीसरे मंगल के बिना मंगलरूप कैसे होगा? जब तीसरे मंगल के अभाव में दूसरा मंगल, अमंगलरूप है, तो शास्त्रमंगल भी अमंगलरूप ही सिद्ध होगा। इस प्रकार स्पष्ट रूप से अमंगल दोष होता है।
इस तर्क का उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि शास्त्र स्वतः मंगल स्वरूप है, फिर भी उसके लिए जो मंगल किया गया है सो इसलिए कि शिष्यों की बुद्धि में मंगल का ग्रहण हो जाये। शिष्यगण शास्त्र को मंगल रूप समझ सकें, इस उद्देश्य से यहां मंगल किया गया है। इसके अतिरिक्त श्रेष्ठ पुरुषों के आचार की परिपाटी का पालन करने के लिए भी मंगलाचरण किया जाता है। अतएव न तो यहां अनवस्था दोष के लिए अवकाश है, न अमंगल आदि अन्य किसी दोष के लिए।
शास्त्र के आरंभ में चार बातें बताने की प्रतिज्ञा की गई थी-(1) मंगल (2)अभिधेय (3) फल (4) एवं संबंध। इनमें से मंगल का निरूपण किया जा चुका है और शास्त्र के विभिन्न नामों का निर्देश करके शास्त्र अभिधेय भी बतलाया जा चुका है। अर्थात् पहले इस शास्त्र के विवाहपण्णत्ति, विआहपण्णति, भगवती आदि नामों का वर्णन किया गया है सो उन्हीं नामों से यह प्रकट हो जाता है कि प्रकृत सूत्र का अभिधेय-क्या है किस विषय का इस शास्त्र में वर्णन किया गया है। फल और सम्बन्ध यह दो बातें शेष रहती है।
श्री भगवती सूत्र व्याख्यान १