________________
नमस्कार करना अभेदविवक्षा से भगवान् ऋषभदेव को नमस्कार करना है, क्योंकि वह उस लिपि के कर्ता हैं। जैसे शब्द नय के अनुसार पाहली बनाने वाले का जो उपयोग वही पाहली है। इस प्रकार लिपि को नमस्कार द्वारा भगवान् ऋषभदेव को नमस्कार किया गया है। अगर लिपि को नमस्कार करने का अर्थ अक्षरों को नमस्कार करना लिया जायेगा तो अतिव्याप्ति दोष होगा ।
शास्त्र की मांगलिकता
प्रकृत शास्त्र की आदि में नमस्कार मंत्र द्वारा और ब्राह्मी लिपि द्वारा जो मंगल किया गया है, उसके संबंध में यह आशंका हो सकती है कि शास्त्र के लिये जो मंगल किया गया है उससे प्रकट है कि यह भगवती सूत्र स्वयं मंगल रूप नहीं है। क्योंकि जो स्वयं मंगल रूप न हो उसी को मंगल रूप बनाने के लिए मंगल किया जाता है। जो स्वयं ही मंगल रूप हो उसके लिए मंगल की क्या आवश्यकता है? संसार में भी सफेद को सफेद और चिकने को चिकना करना व्यर्थ माना जाता है । किये को करने से लाभ ही क्या है? अतएव यदि भगवती सूत्र मंगलरूप है तो इसके लिए मंगल करने की आवश्यकता नहीं थी । किन्तु यहां मंगल किया गया है अतएव यह साबित होता है कि प्रस्तुत शास्त्र मंगल रूप नहीं है ।
कदाचित शास्त्र को मंगल रूप माना जाये और फिर भी उसके लिए पृथक मंगल किया जाये -अर्थात् यह कहा जाये कि शास्त्र स्वयं मंगलमय है फिर भी शास्त्र के लिए मंगल किया गया है, तो अनवस्था दोष आता है 1 अप्रमाणिक अनन्त पदार्थों की कल्पना करते-करते कहीं अन्त न आने को अनवस्था दोष कहते हैं। यहां यही दोष आता है। शास्त्र स्वयं मंगल है, फिर भी उसे मंगल ठहराने के लिए अलग दूसरा मंगल किया गया है, तो वह दूसरा मंगल स्वय मंगल रूप है फिर भी उसे मंगल ठहराने के लिए तीसरा मंगल करना चाहिए। तीसरे मंगल को मंगल रूप ठहराने के लिए चौथा और चौथे को मंगल रूप ठहराने के लिए पांचवां करना पड़ेगा। इस प्रकार अनन्त मंगलों की कल्पना करते-करते कहीं अन्त न आवेगा और प्रकृत शास्त्र के आरंभ होने का अवसर भी न आ सकेगा ।
कदाचित् मंगल करने वाला ऐसा मानता हो कि शास्त्र के लिए जो मंगल किया गया है, उस मंगल को मंगल रूप ठहराने के लिए फिर दूसरा मंगल नहीं किया है, इस कारण अनवस्था दोष नहीं आता। ऐसा मानने पर अन्य दोष आते हैं। जैसे शास्त्र को मांगलिक बनाने के लिए अलग मंगल
५०
श्री जवाहर किरणावली