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नमस्कार करने की बात किस प्रकार संगत मानी जा सकती है? अतएव यह कथन भी सत्य नहीं है कि गणधरों ने लिपि को नमस्कार किया है।
यहां यह प्रश्न किया जा सकता है कि गणधरों ने सूत्र नहीं लिखे तो क्या हुआ ? लिपि तो गणधरों के समय में भी विद्यमान थी। जब लिपि उस समय प्रचलित थी तो उसे नमस्कार किया हो, यह संभव क्यों नहीं है?
यह आशंका ठीक नहीं है। जो लोग स्थापना को नमस्कार करते हैं वे भी उसी स्थापना को नमस्कार करते हैं जिसमें नमस्करणीय-पूज्य की स्थापना की गई है। मात्र स्थापना स्वतः पूज्य है, ऐसा कोई भी नहीं मानता। ऐसी स्थिति में लिपि रूप स्थापना में, जब नमस्करणीय श्रुत लिखा नहीं गया था तब किसको उद्देश्य करके लिपि को नमस्कार किया गया होगा? तात्पर्य यह है कि जैसे मूर्तिपूजक भाई मूर्ति को नमस्कार करते हैं जो मूर्ति के ही उद्देश्य से नहीं वरन् वह मूर्ति जिसकी है उसे उद्देश्य करके नमस्कार करते हैं । अगर मूर्ति के ही उद्देश्य से नमस्कार करें तब तो संसार की समस्त मूर्तियों को फिर वह किसी की ही क्यों न हों, नमस्कार करना होगा। इसी प्रकार लिपि स्थापना रूप है। स्थापना वादियों के लिए भी वह स्वयं तो नमस्कार करने योग्य है नहीं, श्रुत को उद्देश्य करके ही वे उसे नमस्कार कर सकते थे, पर उस समय श्रुत लिपिबद्ध ही नहीं था । ऐसी स्थिति में लिपि को नमस्कार करने का उद्देश्य क्या हो सकता है? अगर लिपि स्वयमेव नमस्कार करने योग्य मानी जाये तो प्रत्येक लिपि नमस्कार करने योग्य माननी होगी। लिपि अठारह प्रकार की है। उस में लाट लिपि है, तुर्की लिपि है, यवन लिपि है और राक्षसी लिपि भी है। यदि गणधरों ने लिपि को ही नमस्कार किया है, ऐसा माना जाये तो यह भी मानना पड़ेगा कि तुर्की एवं यवन लिपि भी नमस्कार करने योग्य हैं। इन लिपियों को नमस्कार करने योग्य मान लिया जाये तो यवन आदि के देवों को भी नमस्कार करने योग्य मानना पड़ेगा ।
तात्पर्य यह है कि गणधरों ने लिपि को नमस्कार नहीं किया है, क्योंकि लिपि को नमस्कार करने का निमित्त श्रुत उस समय लिपि रूप में नहीं था । श्रुत के लिपिबद्ध हो जाने के पश्चात् अर्थात् वीर निर्वाण से 980 वर्ष के अनन्तर, आधुनिक लोगों की दृष्टि से ही किसी ने यहां लिपि को नमस्कार किया है। टीकाकार ने भी यह लिखा है कि आधुनिक मनुष्यों के लिए श्रुत उपकारी है, इसलिए लिपि को नमस्कार किया है।
शब्द नय के विचार के अनुसार शब्द और उसका कर्ता एक हो जाता है । ब्राह्मी लिपि भगवान् ऋषभदेव ने सिखाई है, अतः ब्राह्मी लिपि को श्री भगवती सूत्र व्याख्यान ४६