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________________ इस पद के आधार पर यह कहा जा सकता है कि लिपि स्थापना रूप है। यहां अक्षर रूप स्थापना को गणधरों ने भी नमस्कार किया है, फिर आप स्थापना को नमस्कार क्यों नहीं करते ? अगर स्थापना रूप अक्षरों को नमस्कार किया जाता है तो फिर मूर्ति को नमस्कार करने में क्या आपत्ति है? इस प्रश्न का समाधान करने से पहले एक प्रश्न उपस्थित होता है। वह यह है कि टीकाकार आचार्य पहले कह चुके हैं कि द्रव्य मंगल एकान्त एवं आत्यन्तिक मंगल नहीं है। अतएव द्रव्यमंगल का परित्याग कर भावमंगल को जो एकान्त मंगल रूप है, ग्रहण करते है। इस कथन के अनुसार भावमंगल किया भी जा चुका है। अब प्रश्न यह है कि जिन्होंने द्रव्य का त्याग किया वह स्थापना पर कैसे आ गये? जब द्रव्यमंगल ही एकान्तिक और आत्यन्तिक मंगल नहीं है तो स्थापना एकान्त मंगल रूप कैसे है। जिस शास्त्र में द्रव्य मंगल को त्यागने की बात लिखी है उसी में लिपि को नमस्कार करने की बात भी लिखी है। यह दोनों लेख परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं। अगर शास्त्र में परस्पर विरोधी विधान नहीं हो सकते तो विचारना चाहिए कि यहां आशय क्या है? इन लेखों में क्या रहस्य छिपा है? गणधरों ने लिपि को नमस्कार किया है। यह कथन समुचित प्रतीत नहीं होता, क्योंकि गणधरों ने सूत्र को लिपिबद्ध नहीं किया है। जब उन्होंने सूत्रों को लिखा ही नहीं तब वह लिपि को नमस्कार क्यों करेंगे? इस विषय में टीकाकार भी मध्यस्थ भाव से स्पष्ट कहते हैं कि लिपि के लिए किया गया यह नमस्कार इस काल के जन्मे हुए लोगों के लिए है। इस कथन से यह सिद्ध होता है कि गणधरों ने लिपि को नमस्कार नहीं किया है। किन्तु सूत्र के लिखने वाले किसी परम्परा के अनुयायी ने लिपि को नमस्कार किया है। ___ पहले समय में सूत्र लिखे नहीं जाते थे। वरन कण्ठस्थ किये जाते थे। गुरु के मुख से सुनकर शिष्य सूत्रों को याद कर लेता था और वह शिष्य फिर अपने शिष्यों को कण्ठस्थ करा देता था। इसी कारण शास्त्र का 'श्रुत' नाम सार्थक होता है। प्राचीन काल में कंठस्थ कर लेने की मेघा शक्ति प्रबल होती थी, वे प्रमादी नहीं थे अथवा आरंभ का विचार करके सूत्र लिखने की परम्परा नहीं चली थी। जब लोग प्रमादी होकर श्रुत को भूलने लगे, तब आचार्य देवर्धिगणि क्षमाश्रमण ने वीरनिर्वाण संवत् 980 में सूत्रों को लिपिबद्ध करवाया। इससे स्पष्ट है कि पहले जैन शास्त्र लिखे नहीं जाते थे। जब शास्त्र लिखे ही नहीं जाते थे, सूत्र लिपि रूप में आये ही नहीं थे, तब लिपि को ४८ श्री जवाहर किरणावली -
SR No.023134
Book TitleBhagwati Sutra Vyakhyan Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Aacharya
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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