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इसके विरुद्ध अरिहन्त भगवान् सर्वज्ञ होने के कारण स्वतंत्र भाव से उपदेश देते हैं। उनका उपदेश मौलिक होता है और आचार्य का उपदेश अनुवाद रूप होता है। इस कारण आचार्य को प्रथम नमस्कार न करके अरिहन्त को ही पहले नमस्कार किया गया है।
अथवा आचार्य, उपाध्याय और साधु अरिहंत भगवान् की परिषद् को नमस्कार नहीं किया जाता है। अतएव पहले अरिहंत भगवान् को नमस्कार किया गया है।
द्वितीय मंगलाचरण का विवेचन श्री भगवती सूत्र के प्रथम मंगलाचरण नमस्कार मंत्र का विवेचन किया जा चुका है। शास्त्रकार ने दूसरा मंगलाचरण इस प्रकार किया है
__ नमो बंभीए लिवीए। अर्थात् – ब्राह्मी लिपि को नमस्कार हो।
टीकाकार ने बतलाया है कि यह मंगलाचरण आधुनिक लोगों की दृष्टि से है, प्राचीनकाल वालों के लिए नहीं। क्योंकि इन आगे वाले दोनों मंगलों के संबंध में टीकाकार लिखते हैं कि जब साक्षात् केवली भगवान् नहीं होते तब श्रुत ही उपकारी होता है।
श्रुत के दो भेद हैं- द्रव्य श्रुत और भाव श्रुत । अक्षर विन्यास रूप अर्थात् लिपिबद्ध श्रुत द्रव्य श्रुत कहलाता है। इसीलिए यहां कहा गया है-'नमो बंभीए लिविए' अर्थात् ब्राह्मी लिपि को नमस्कार हो।
लिपि का अर्थ क्या है? इस संबंध में आचार्य कहते हैं कि पुस्तक आदि में लिखे जाने वाले अक्षरों का समूह लिपि कहलाता है।
लिपि कहने से कौन-सी लिपि समझनी चाहिये? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि नाभितनय भगवान् ऋषभदेव ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को दाहिने हाथ से जो लिपि सिखाई वह ब्राह्मी लिपि कहलाती है। यहां उसी लिपि का अर्थ समझना चाहिए। इस विषय में प्रमाण उपस्थित करते हुए कहा गया है
लेह लिवीविहाणं जिणेण बंभीए दाहिणकरेणं। अर्थात्-जिनेन्द्र भगवान्-ऋषभदेव ने लेख रूप लिपि का विधान दाहिने हाथ से ब्राह्मी को बतलाया, सिखाया। इसी कारण वह लिपि ब्राह्मी लिपि के नाम से प्रसिद्ध हुई। .
- श्री भगवती सूत्र व्याख्यान ४७