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शंका-प्रस्तुत मंगलाचरण में पांच पदों को जो नमस्कार किया गया है सो यह संक्षेप में है, यदि ऐसा कहा जाये तो पांच पदों की क्या आवश्यकता थी? संक्षेप में दो पद ही पर्याप्त थे। अर्थात्
नमो सव्वसिद्धाणं। नमो सव्वसाहूणं। ___ इन दो पदों में पांचो परमेष्ठी अन्तर्गत हो सकते थे, क्योंकि साधु में अर्हन्त, आचार्य और उपाध्याय सभी का समावेश हो जाता है। मंत्र यथासंभव थोड़े ही अक्षरों में होना चाहिए। फिर यहां पर तो उसे संक्षेप रूप ही स्वीकार किया गया है। थोड़े अक्षर होने से प्रथम तो मंत्र जल्दी याद हो जाता है, दूसरे याद भी बना रहता है। कष्ट आने पर लम्बे-चौड़े मंत्र जाप करना कठिन हो जाता है। थोड़े अक्षरों के मंत्र का सरलता से ध्यान किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में पांच पद क्यों बनाये गये हैं?
अगर यह कहा जाये कि विस्तार से नमस्कार किया गया है तो फिर पांच ही पद क्यों बनाये गये हैं? अधिक क्यों नहीं बनाये गये। विस्तार की गुंजाइश तो थी ही। जैसे अरिहन्त, सिद्ध आदि को समुच्चय रूप में, पृथक्-पृथक् नमस्कार किया है, उसी तरह उनका पृथक-पृथक् नाम लेकर नमस्कार किया जा सकता था। ‘णमो उसहस्स' ‘णमो अजिअस्स' इस प्रकार विस्तार के साथ नमस्कार करने में क्या हानि थी?
इस प्रश्न का समाधान यह है कि यहां न तो एकान्त संक्षेप से नमस्कार किया गया है और न एकान्त विस्तार से ही। यहां मध्यम मार्ग स्वीकार किया गया है। जितने में बांध भी हो जाये और नमस्कार करने वाले को अधिक भी न जान पड़े, ऐसी पद्धति का यहां अवलम्बन लिया गया है।
अगर शंकाकार के कथनानुसार विस्तार से नमस्कार किया जाये तो सम्पूर्ण आयु समाप्त हो जाने पर भी नमस्कार की क्रिया समाप्त न हो पायेगी, क्योंकि सिद्ध अनन्तानन्त हैं वे सभी अरिहंत भी हुए हैं। अतएव एकान्त विस्तार से नमस्कार करना संभव नहीं है।
अगर एकान्त संक्षेप पद्धति का आश्रय लिया जाता तो परमेष्ठियों का पृथक-पृथक् स्वरूप समझने में कठिनाई होती। फिर आचार्य, उपाध्याय, साधु और अरिहन्त के स्वरूप में जो भिन्नता है वह स्पष्ट न होती। अतएव मध्यम मार्ग को अंगीकार करना ही उचित है।
अगर यह कहा जाये कि इस प्रकार पृथक्-पृथक नमस्कार करने से क्या बोध होता है ? तो इसका उत्तर यह कि अरिहंत भगवान् को नमस्कार
- श्री भगवती सूत्र व्याख्यान ४५
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