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का लोकोत्तर आलोक प्रदान किया है, जिन्होंने कुपथ से निवृत्त करके सुपथ पर लगाया है, जिन्होंने जीवन के महान् साध्य को समीप बनाने में अनुपम सहायता दी है, जिनके परम अनुग्रह से आत्मा-अनात्मा का विवेक जागृत हुआ है, उन साधुओं का उपकार अवश्यमेव स्वीकार करना चाहिए। सच्चे गुरु संकीर्णता एवं कदाग्रह मिटाना सिखाते हैं, संकुचित वृत्ति रखना नहीं सिखाते। सच्चे धर्मगुरु वही है जो खोटी संकीर्णता से निकाल कर विशालता में जाने का उपदेश देते हैं।
साधु को नमस्कार करने से क्या लाभ है? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए आचार्य ने कहा है-मानव का सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थ मोक्ष है। मोक्ष ही मनुष्य
की परम साधन का ध्येय है। इस परम पुरुषार्थ की साधना में सहायता देने वाला साधु के सिवाय और कौन है? अरिहंत तीर्थंकर चौबीस ही होते हैं, जो सब समयों में नहीं होते-विशेष समय पर ही होते हैं और आचार्य उतने ही होते हैं जितने गच्छ होते हैं। अतएव अरिहंत और आचार्य की सत्संगति का लाभ, सब को सब समयों पर नहीं हो सकता। साधु के साथ सब का समागम हो सकता है और वे मोक्ष की साधना का उपदेश भी देते हैं।
बादशाह एक ही होता है और प्रायः उसके राज्य के प्रान्तों की संख्या के अनुसार गवर्नरों की संख्या होती है। अतएव बादशाह और गवर्नर से सब की भेंट नहीं हो सकती। हां, उनके कर्मचारियों से सब की भेंट हो सकती है। अरिहंत को बादशाह, आचार्य को गवर्नर और साधुओं को कर्मचारी समझना चाहिए।
टीकाकार लिखते हैं कि साधु किस प्रकार मोक्ष में सहायक होते हैं, यह बात प्राचीन आचार्यों ने इस प्रकार बतलाई है
असहाए सहायत्तं, करेंति में संजमें करेंतरस।
एएण कारणेणं, णमामि हं सव्वसाहूणं।। अर्थात्-संयम धारण करने वाला जो असहाय होता है, उसके सहायक साधु ही होते हैं। साधु ही निराधार के आधार हैं और असहाय के सहायक हैं। इस कारण ऐसे महात्माओं को मैं नमस्कार करता हूं।
__ प्रस्तुत शास्त्र के प्रथम मंगलाचरण के पांच पदों का यह विवेचन यहां समाप्त होता है। अब इसी संबंध की अन्यान्य बातों पर संक्षेप में प्रकाश डाला जा है।
कतिपय शंका-समाधान ४४ श्री जवाहर किरणावली