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उपाध्याय को नमस्कार करने का क्या प्रयोजन है? इस प्रश्न का समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं कि उपाध्याय न होते तो भगवान् महावीर से आया हुआ परम्परा का ज्ञान हमें कैसे प्राप्त होता? उपाध्याय की कृपा से ही यह ज्ञान हमें प्राप्त हो रहा है। इसके अतिरिक्त उपाध्याय महाराज शिष्यों को ज्ञान सिखाकर सूत्र द्वारा भव्य प्राणियों की रक्षा करते हैं । इस प्रकार उपाध्याय हमारे महान् उपकारक हैं। इसी कारण उन्हें नमस्कार किया जाता है।
उपाध्याय और आचार्य परम्परां अगर अविछिन्न रूप से चालू रहे तो अपूर्व लाभ होता है । व्यवस्था सभी जगह लाभदायक है। संसार के कार्य व्यवस्था के साथ किये जाते हैं तो सफल होते हैं। धर्म के विषय में भी व्यवस्था का मूल्य कम नहीं है । व्यवस्था चाहे लौकिक हो, चाहे धार्मिक उसे बिगाड़ देने से सभी को हानि पहुंचती है। शास्त्र में अन्य पाप करने वाले को नवीन दीक्षा से अधिक प्रायश्चित् नहीं कहा है, परन्तु गण और संघ में भेद करने वाले को दशवें प्रायश्चित्त का विधान किया गया है ।
भगवान कहते हैं- मेरे संघ को छिन्न-भिन्न करने वाला पुरुष परम्परा से लाखों जीवों को हानि पहुंचाता है । भगवान् के इस महत्वपूर्ण कथन पर विचार करके संघ की व्यवस्था करना उचित है। प्रत्येक पुरुष स्वच्छंद हो तो उस संघ को हानि पहुंचे बिना नहीं रह सकती। संघ की वह हानि तात्कालिक ही नहीं होती, उसकी परम्परा अगर चल पड़ती है तो दीर्घ काल तक उससे संघ को हानि पहुंचती रहती है।
'णमो सव्वसाहूणं' का विवेचन
नमस्कार मंत्र के चार पदों का संक्षेप में विवेचन किया जा चुका है। पांचवा पद है
णमो सव्वसाहूणं अर्थात् सब साधुओं को नमस्कार हो ।
'नमो' का अर्थ पहले बतलाया जा चुका है। वही अर्थ यहां पर भी समझना चाहिए। साधु किसे कहते हैं, यह देखना चाहिए। इस संबंध में आचार्य (टीकाकार) लिखते हैं- 'साधयन्ति ज्ञानादिशक्तिभिर्मोक्षमिति साधवः' अर्थात् समस्त प्राणियों पर जिनका समताभाव हो, जो किसी पर राग-द्वेष न रक्खे, वन्दना करने वाले और निन्दा वाले पर समान भाव धारण करे, जो प्राणीमात्र को आत्मा के समान समझे, उसे साधु कहते हैं। कहा भी हैश्री जवाहर किरणावली
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