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आ जायेगा और अनेक साधु रूपी कारीगरों की शक्ति समुचित रूप से उपयोग में नहीं आ सकेगी। संघ को भी अपना कार्य आचार्य की देख रेख में होने देना चाहिए और आचार्य पर पूर्ण श्रद्धा भाव रखना चाहिए। ऐसा करने से संघ रूप भवन में भव्यता आती है।
कहा जा सकता है कि साधु समूह में से ही एक को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया जाता है। मगर यदि अन्य साधुओं में भी आचार्योचित गुण विद्यमान हों तो उन्हें भी आचार्य पद पर प्रतिष्ठित क्यों न किया जाये? इसका समाधान यह है कि एक को प्रधान माने बिना कार्य सुचारु रूप से नहीं होता। कहा भी है
अनायका विनश्यन्ति, नश्यन्ति बहुनायकाः अर्थात् जिस समूह का कोई नायक नेता नहीं होता उसकी दुर्दशा होती है और जिस समूह के बहुतेरे नायक होते हैं, उसकी भी वही दुर्दशा होती है।
जैसे सैंकड़ों, हजारों सदस्यों में से किसी एक बुद्धिमान पुरुष को सभापति निर्वाचित कर लिया जाता है और निर्वाचन से कार्य व्यवस्थापूर्वक एवं शान्ति के साथ सम्पन्न होता है, उसी प्रकार संघ का कार्य समीचीन रूप से चलाने के लिए आचार्य का निर्वाचन किया जाता है। सभा में उपस्थित सदस्यों में अनेक बुद्धिमान पुरुष होते हैं मगर उन सब को सभापति नहीं बनाया जाता। ऐसा करने से सभापति पद की उपयोगिता विनष्ट हो जाती है। इसी प्रकार संघ में आचार्योचित गुणों से युक्त अनेक साधुओं की विद्यमानता में भी आचार्य एक ही बनाया जा सकता है। जैसे सब सदस्य, सभापति के आदेशानुसार बर्ताव करते हैं उसी प्रकारसंघ आचार्य के आदेशानुसार चलता है। जैसे सभापति की बात न मानकर मनमानी करने से सभा छिन्न-भिन्न एवं अनियंत्रित हो जाती है, उसी प्रकार आचार्य की बात न मानकर स्वेच्छापूर्वक प्रवृत्ति करने से संघ भी छिन्न-भिन्न हो जाता है।
आचार्य, संघ की केन्द्रीभूत शक्ति है। जिस प्रकार राज्य संचालन में केन्द्रीभूत शक्ति प्रधान मानी जाती है, उसी प्रकार संध में आचार्य प्रधान माना जाता है।
तात्पर्य यह है कि संघ की शक्ति जोड़ने में जो दक्ष होता है, संघ के संचालन में जो प्रधान भाग लेता है, वह आचार्य है।
आचार्य को नमस्कार इसलिए किया जाता है कि वे स्वयं आचार का पालन करने के साथ ही दूसरों के आचार का ध्यान रखते हैं और उसके पालन
- श्री भगवती सूत्र व्याख्यान ३५