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'कुछ-कुछ' दूत के समान।' तात्पर्य यह है कि जैसे दूत अन्वेषण कार्य में या खोज करने में कुशल होते हैं, उसी प्रकार जो शिष्य उचित और अनुचित की खोज में, हेय और उपादेय के अन्वेषण में तत्पर हैं उन शिष्यों को उपदेश देने में जो कुशल हैं, उन्हें आचार्य कहते हैं।
आचार्य शब्द की पूर्वोक्त व्याख्याओं में आचार्य के जिन गुणों का समावेश किया गया है, उन गुणों से सुशोभित आचार्य महाराज को नमस्कार हो।
साधु और आचार्य में क्या अन्तर है, यह प्रश्न यहां सहज ही उद्भूत हो सकता है। साधु और आचार्य दोनों ही पांच महाव्रतों का पालन करते हैं, दोनों ही आहार के बयालीस दोष टालकर भिक्षा ग्रहण करते हैं, दोनों ही सकल संयम के धारक हैं, तो सामान्य साधु में और आचार्य में क्या अन्तर है? इस भेद का कारण क्या है? परमेष्टी में एक का स्थान तीसरा और दूसरे का पांचवां क्यों हैं?
साधु और आचार्य का अन्तर सुगमता से समझने के लिए एक उदाहरण दिया जाता है। मान लीजिए एक मकान बन रहा है। उसमें सैकड़ों कारीगर काम करते हैं। सब के हाथों में कारगरी के औजार हैं। लेकिन सब कारीगरों के ऊपर एक इन्जिनियर है। इस इंजिनियर पर जैसा चाहिए वैसा मकान बनवाने की तथा हानि-लाभ की जिम्मेदारी है। काम तो सब कारीगर करते हैं परन्तु बुद्धि इंजिनियर बतलाता है। सब कारीगर उसी के आदेशानुसार कार्य करते हैं। इसी कारण मकान में एकरूपता रहती है और इच्छानुसार मकान बन जाता है। अगर सभी कारीगर स्वछन्द हों और अपनी मर्जी के मुताबिक मकान बनाने के लिए उद्यत हो जाएं तो मकान की एक रूपता नष्ट हो जायेगी, इच्छित मकान नहीं बन सकेगा।
यही बात यहां समझनी चाहिए। संघ को एक मकान समझ लीजिए। संघ में यद्यपि अनेक साधु होते हैं और ये सब समान भी हैं, तथापि इंजिनियर के समान आचार्य की आवश्यकता रहती है। जैसे इंजिनियर के आदेशानुसार मकान बनाने से मकान में अच्छाई और एकरूपता आती है, उसी प्रकार आचार्य के आदेशानुसार कार्य करने से संघ में अच्छाई आती है और एकरूपता रहती है।
किस साधु ने ज्ञान का विशेष अभ्यास किया है, कौन दर्शन में उत्कृष्ट है, किसमें कौनसी और कितनी शक्ति है और किसे कहां नियुक्त करना चाहिए, यह सब बातें अगर आचार्य के निरीक्षण में न हों तो संघ रूपी मकान में भद्दापन ३४ श्री जवाहर किरणावली
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