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कहा जा सकता है कि अगर हमारी आत्मा में सिद्धों के समान ही गुण विद्यमान हैं तो हम में और सिद्धों में कुछ भी अन्तर नहीं है । तब हम उन्हें नमस्कार क्यों करें? इस विषय में इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि प्रत्येक आत्मा में समान गुण होने पर भी संसारी जीव अपने गुणों को भूल रहा है। उदाहरणार्थ संसारी आत्मा में ज्ञान गुण मौजूद हैं। मगर वह कर्मों के कारण विकृत हो रही है और अत्यन्त सीमित हो रही है। अनादिकालीन कर्मों के प्रभाव से आत्मा इतनी दुर्बल हो गयी है कि इन्द्रियों का सहारा लेकर उसे ज्ञान करना पड़ता है। कान के द्वारा न जाने कितने शब्द अब तक सुने हैं और यदि कान बने रहे तो न मालूम कितने शब्द सुने जा सकते हैं, सुनने की यह शक्ति कान की नहीं हैं किन्तु कान के द्वारा आत्मा ही सुनती है। यही बात घ्राण, रस, स्पर्श और रूप आदि के विषय में समझनी चाहिए । लेकिन इन्हें जानने के लिए इन्द्रियों की सहायता की अपेक्षा होना आत्मा की कमजोरी है आत्मा स्वयं देखे, सुने, उसे इन्द्रिय आदि किसी भी अन्य साधन की अपेक्षा न रहे यह आत्मा का असली स्वाभाविक स्वरूप है। यह गुण कैसे मालूम हो, इस बात को इन्द्रियद्वार से देखना चाहिए ।
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शास्त्रकारों ने दस प्राण बतलाये हैं। पांच इन्द्रियां, तीन बल - मनोबल, वचन बल, कायबल श्वासोच्छ्वास और आयु यह दस प्राण हैं । इन्हें द्रव्य प्राण कहा जाता है।
सिद्धों में चार भाव प्राण होते हैं-ज्ञान प्राण, दर्शन प्राण, वीर्य प्राण, और सुखप्राण। यह चार आत्मा के असली प्राण है और संसारी जीवन के दस प्राण विकारी हैं। इन दस प्राणों से हम आत्मा के असली प्राणों का पता लगा सकते हैं। जैसे - ज्ञान और दर्शन प्राण इन्द्रिय प्राण में समाये हुए हैं, तीनों बलों में वीर्य प्राण समाया हुआ और आयु एवं श्वासोच्छ्वास प्राणों में सुख प्राण समाया हुआ है।
सुख प्राण को श्वासोच्छ्वास भी कहा जा सकता है । शान्तिपूर्वक श्वास आने के समान संसार में और कोई सुख नहीं है। दूसरे सुख ऊपरी हैं। श्वास शान्ति के साथ आवे यह सुख प्राण है। मगर विकार दशा में इस सुख प्राण के द्वारा सुख भी होता है और दुःख भी होता है । यह सुख - दुःख मिट कर आत्मा को उसका स्वकीय सुख प्राप्त हो, यही वास्तविक सुख प्राण है । उक्त दस प्राणो में एक आयु प्राण बतलाया गया है। आत्मा जब तक शरीर में है तभी तक आयु के साथ उसका संबंध है । आत्मा जब शरीर से अतीत हो जाती है तब आयु के साथ उसका संबंध नहीं रहता । आत्मा का श्री भगवती सूत्र व्याख्यान
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