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'श्रोतागण ! क्या आप अर्हन्त भगवान् को नमस्कार करते हैं? जी हां!' लेकिन यदि नमस्कार करके भी दुर्भाव बना रहा तो क्या कहा जायेगा? जिसे नमस्कार किया है वह बड़ा है। उस बड़े को अगर सच्चे हृदय नमस्कार किया है तो उसके लिए, उसके आदर्श के लिए, सिर दे देना भी कोई मुश्किल बात नहीं होनी चाहिए ।
अगर कोई आपका सिर काटने के लिए आवे तो अरिहंत से आपका भाव तो नहीं पलटेगा ? अगर कष्ट आने पर आपने अरिहंत भगवान् की ओर से अपना भाव पलट लिया तो समझ लीजिए अभी आपके नमस्कार में कमी है ।
मान लीजिए एक आदमी आपकी दुकान पर आया। आपने उस आदमी को नमस्कार करके बिठाया । उस आदमी ने आपकी पेटी में एक रत्न देखा और उसे लेना चाहा। अब आप यदि यह कहते हैं कि मैंने देने के लिए आपको नमस्कार नहीं किया है। मेरे नमस्कार करने का उद्देश्य यह है कि आप मेरी दुकान पर आये हैं तो मुझे कुछ दे जावें। अगर आप यह कहते हैं तो मानना चाहिए कि आपका नमस्कार करना दिखावटी था - सिर्फ लोक-व्यवहार था, सच्चे हृदय से उत्पन्न होने वाली समर्पण की भावना का प्रतीक नहीं था । जिसे नमस्कार किया है, उसके लिए अपना सिर भी दे देने के लिए तैयार हो जाना सच्चा नमस्कार है।
देव कामदेव के विरुद्ध तलवार लेकर आया था। उसने कामदेव को निर्ग्रन्थ-धर्म को त्याग देने का आदेश दिया था। ऐसा न करने पर उसने घोर से घोर कष्ट पहुचाने की धमकी दी थी। मगर कामदेव श्रावक उस देव से भयभीत हुआ था? उसने यही कहा कि यह तन तुच्छ है और प्रभु का धर्म महान् है । यह तुच्छ शरीर भी टिकाऊ नहीं है। एक दिन नष्ट हो जायेगा सो यदि यह शरीर धर्म के लिए नष्ट होता है तो इससे अधिक सद्भाग्य की बात और क्या होगी ?
अरणक श्रावक का कोई अपराध नहीं था । फिर भी देव उसे यह कहता था कि तू अर्हन्त की भक्ति छोड़ दे अन्यथा तेरा जहाज डुबा दूंगा। मगर प्रणवीर अरणक ने कहा- जहाज चाहे डूबे, मगर धर्म नहीं छोड़ सकता ।
कई लोग अपनी जिद को ही धर्म मान लेते हैं। इस विषय में यह बात नहीं है। मगर अर्हन्त के जो गुण पहले बतलाये गये हैं, उन गुणों से युक्त भगवान् ने जिस धर्म का निरूपण किया है, जो धर्म शुद्ध हृदय की स्वाभाविक प्रेरणा के अनुकूल हैं और साथ ही युक्ति एवं तर्क से बाधित नहीं होता, तथा श्री जवाहर किरणावली
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