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निकालने के लिए तथा मोक्ष रूपी नगरी का मार्ग बताने के लिए सुयोग्य पथ-प्रदर्शक हो सकता है। अरिहन्त भगवान् में ऐसी विशेषता है। उन्होंने भव-कान्तार को पार किया है, अतएव वही नमस्कार करने योग्य हैं।
कर्म, कर्ता के किये हुए होते हैं। कर्ता द्वारा जो किया जाये वही कर्म कहलाता है। मतलब यह है कि कर्म तुम्हारे बनाए हुए हैं, कर्मों के बनाये तुम नहीं हो। जो बनता है वह गुलाम है और जो बनाता है वह मालिक है। अरिहंत भगवान् ने हमें बतलाया है कि तुम इतने कायर क्यों हो रहे हो कि अपने बनाये हुए कर्मों से आप ही भयभीत होते हों? कर्म तुम्हारे खेल खिलौने हैं। तुम कर्मों के खिलोने नहीं हो। इस प्रकार कर्मों के अन्त का मार्ग बतलाने के कारण अरिहंत भगवान् नमस्कार करने योग्य हैं।
नमस्कार दो प्रकार का है-एक तो अपना सांसारिक स्वार्थ साधने के लिए किया गया नमस्कार, दूसरे वीर क्षत्रिय की भांति नमस्कार करना अर्थात् या तो नमस्कार करे नहीं अगर कर ले तो फिर कोई भी वस्तु उससे अधिक समझे नहीं।
__ कहा जाता है कि राणा प्रताप के लिए अकबर बादशाह ने अपने राज्य का छठा भाग देना स्वीकार किया था, अगर राणा एक बार बादशाह के सामने जाकर उसे नमस्कार कर ले। इस प्रलोभन के उत्तर में राणा ने कहा था, 'जहां मुझे दोनों पैर जमा कर खड़े रहने की जगह मिलेगी, वहीं मेरा राज्य है।' नमस्कार करने का अर्थ अपना सर्वस्व समर्पण कर देना है। अगर मैंने बादशाह को नमस्कार किया तो मैं स्वयं बादशाह बन जाऊंगा, फिर उसके राज्य का छठा भाग या चौथाई भाग भी लेकर क्या करूंगा? राज्य के लोभ के सामने राणा का मस्तक नहीं झुक सकता।
महाराणा प्रताप ने अपनी टेक रखने के लिए अनगिनत कष्ट सहन किये, पर हृदय में दीनता नहीं आने दी। बादशाह के सामने उनका मस्तक तो क्या, शरीर का एक रोम भी नहीं झुका। यों तो राणा अपने अभीष्ट देवता और अपने गुरु को नमस्कार करते ही होंगे लेकिन लोभ के आगे उनका मसतक नहीं झुका।
सारांश यह है कि प्रथम तो वीर पुरुष सहसा किसी को नमस्कार नहीं करते और जब एक बार कर लेते हैं तो नमस्करणीय व्यक्ति से फिर किसी प्रकार का दुराव नहीं रखते। फिर वे पूर्ण रूप से उसी के हो जाते हैं। उसके लिए सर्वस्व समर्पण करने में भी अपने पैर पीछे नहीं हटाते।
- श्री भगवती सूत्र व्याख्यान २७