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भी अन्त हो जाता है। इसी प्रकार कर्म की परम्परा का भी अन्त हो सकता है । जिस प्रकार प्रत्येक अंकुर और प्रत्येक बीज आदि ही हैं फिर भी दोनों के कार्य-कारण का प्रवाह अनादि है, इसी प्रकार प्रत्येक कर्म आदि हैं तथापि उसका कर्म के साथ कार्य-कारण का संबंध अनादि है ।
यह शंका भी उचित नहीं है कि जैसे अंकुर के जला देने पर बीज का अभाव हो जाता है, उसी प्रकार कर्म का नाश होने पर आत्मा का भी नाश क्यों नहीं हो जायेगा? बीज और अंकुर तथा आत्मा और कर्म के संबंध में पर्याप्त अन्तर है। बीज और अंकुर में उपादान - उपादेयभाव संबंध हैं, जबकि आत्मा और कर्म में मात्र संयोग संबंध है । जैसे बीज और अंकुर का स्वरूप मूलतः एक है, वैसे आत्मा और कर्म का स्वरूप एक नहीं है। दोनों का स्वरूप भिन्न-भिन्न है। जीव चैतन्य रूप है, कर्म जड़ है। जीव और कर्म को प्रायः सभी चैतन्य और जड रूप मानते हैं। जलाने पर जड़ ही जल सकता है। चेतन नहीं जल सकता है। दोनों भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले हैं। गीता में कहा है- नैनं दहति पावकः अर्थात् आत्मा को अग्नि जला नहीं सकती ।
इस संबंध में एक बात और भी कही जा सकती है। वह यह कि जैसे बीज और अंकुर एक दूसरे से उत्पन्न होते हैं वैसे आत्मा और कर्म एक दूसरे से उत्पन्न नहीं होते। बीज अंकुर की परम्परा के समान कर्मों की - द्रव्य कर्म और भाव कर्म की ही परम्परा यहां अनादिकालीन बताई गई है। अतः द्रव्य कर्मों और भाव कर्मों के क्षय होने पर द्रव्य कर्मों का क्षय हो जाता है। आत्मा अविनाशी होने के कारण विद्यमान रहती है बल्कि स्वरूप में आ जाती है। कर्म का नाश होने से आत्मा की अशुद्धता का ही नाश होता है।
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नमस्कार के विषय में कहा जा सकता है कि अरिहन्त को नमस्कार करने से क्या लाभ है? अरिहन्त भगवान् वीतराग हैं। वह न तुष्ट होते हैं, न रुष्ट होते हैं। हमें उनकी छाया भी कभी मिलती नहीं है। फिर नमस्कार करना वृथा क्यों नहीं है?
भगवान् को नमस्कार करने से क्या लाभ है? इस विषय में आचार्य कहते हैं- आत्मा संसार रूपी वन में भटकते भयभीत हो गयी है । ऐसी आत्मा को मार्ग बताने वाला कौन है, जिससे वह भव-वन से बाहर निकल सके। जिसने उस वन को पार नहीं किया है, जो स्वयमेव उसी वन में भटक रही है अर्थात् जिसने कर्म शत्रु को नहीं जीता है, वह उस मार्ग के विषय में क्या जानेगी? उद्धार की आशा उससे कैसे की जा सकती है ? जिसने स्वयं उस वन को पार किया हो, शुद्ध आत्मपद की प्राप्ति कर ली हो, वही उस वन से श्री जवाहर किरणावली
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