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इसमें मेरा क्या बिगड़ता है? मैं द्वेष भाव धारण कर के अपना अमंगल आप ही क्यों करूं?
तलवार से कटते समय भी अगर प्रतिशत्रुता का भाव उदित होता है तो नवीन कर्म बंधे बिना नहीं रहते। यद्यपि पूर्वबद्ध कर्म चुकते हैं तथापि नये कर्म बंधते भी हैं। अगर तलवार से कटते समय यह विचार आया कि मारने वाला और मरने वाला मैं नहीं हूं और उस समय निर्विकार अवस्था रही तो नूतन कर्म का बंध नहीं होता।
__ कल्पना कीजिए एक व्यापारी ने किसी साहूकार के यहां अपना खाता डाला। वह एक हजार रुपया ऋण ले गया। थोड़े दिनों के पश्चात् वह एक हजार रुपया दे गया और दो हजार नये ले गया। ऐसा करने से उसका खाता चलता ही रहेगा। इसके विरुद्ध गर वह जमा कराता रहे और नया कर्ज न ले तो उसका खाता चुक जायेगा। इसी प्रकार पूर्वबद्ध कर्म समभाव से भोगे, अच्छे या बुरे विचार न लावे तो किसी समय कर्म शत्रु का नाश हो जायेगा।
आम्रव, संवर और निर्जरा के भेद से कर्मों का स्वरूप प्रकारान्तर से भी कहा जाता है मगर विस्तारभय से और समय की कमी के कारण यहां उसे छोड़ दिया जाता है।
आचार्य कहते हैं-इस प्रकार के कर्म-शत्रुओं का नाश करने वाले अरिहंत भगवान् को मैं नमस्कार करता हूं।
यहां एक बात विशेष महत्वपूर्ण है। नमस्कार करते समय किसी व्यक्ति-विशेष का नाम नहीं लिया गया है, अपितु अमुक प्रकार के गुणों से युक्त भगवान् को नमस्कार किया गया है। यह विशाल दृष्टिकोण एवं मध्यस्थभाव का ज्वलंत प्रमाण है। यह निष्पक्ष भावना कितनी प्रशंसनीय है? चाहे जो हो, जिस ने कर्म शत्रु को अत्यन्त विनाश कर दिया है, वही अरिहंत है और वही वन्दनीय है, वही पूजनीय है।
कोई भी वस्तु अगर नमूने के अनुसार हो तो उसमें झगड़े की गुंजाइश नहीं है। नमूने के अनुसार न होने पर ही झगड़ा उत्पन्न होता है। इसी कारण आचार्य ने कर्मशत्रुओं का नाश करने वाले को अरिहंत और वंद्य कहा है। जिसमें विकार विद्यमान है वह माननीय या वन्दनीय नहीं और जो विकारों के वेग से विमुक्त हो चुका है, वह कोई भी क्यों न हो, वन्दनीय है।
अगर अरिहंत ने अपने कर्मों का अत्यन्त अन्त कर दिया है और अपनी आत्मा को एकान्त निर्मल बना लिया है, तो उन्होंने अपना ही कल्याण साधन नहीं किया है। उन्होंने कर्मों का नाश किया है, यह देख कर हम उन्हें क्यों नमस्कार करें? २४ श्री जवाहर किरणावली