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अरहन्त पद का एक रूपान्तर 'अरिहन्त' है। अरि का अर्थ है। उनका जिन्होंने नाश कर दिया हो वह अरिहन्त कहलाते हैं। आत्मा के असली शत्रु आत्मिक महापुरुष विशिष्ट साधन के द्वारा उन कर्मों का नाश कर डालते हैं उन्हें अरिहन्त कहते हैं। उन्हें मेरा नमस्कार हो। कहा भी है
अट्ठविहं पिय कम्म, अरिभूअं होइ सव्वाजीवाणं।
तं कम्ममरिं हंता, अरिहंता तेण वुच्चंति।। अर्थात् आठ प्रकार के कर्म संसार के समस्त जीवों के अरि (शत्रु) हैं। जो उन कर्म-शत्रुओं का नाश कर देता है वही अरिहन्त कहलाता है।
जो जिसकी स्वतंत्रता का अपहरण करके उसे अपने अधीन बना लेता है, और उसको इच्छा के अनुसार काम नहीं करने देता, वरन् विवश करके जो अपनी इच्छाएं उस पर लादता है वह उसका शत्रु कहलाता है। शत्रु अपनी शक्ति से काम कराता है। जिसे काम करना है, उसकी अपनी शक्ति लुप्त हो जाती है। व्यवहार में देखा जाता है कि शत्रु इच्छानुसार कार्य नहीं करने देता और अनिच्छनीय कार्यों के लिए विवश करता है।
बाह्य वैरियों के समान आन्तरिक वैरी कर्म है। आत्मा की उस ज्ञान शक्ति को, जिसके द्वारा संसार के समस्त पदार्थ जाने जाते हैं, जो कर्म हरण करता है, उसे ज्ञानावरण कर्म कहते हैं। ज्ञानावरण कर्म ने आत्मा की उस ज्ञान शक्ति को दबा दिया है। जिस प्रकार बादलों के कारण सूर्य का स्वाभाविक प्रकाश रुक जाता है, उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म ने आत्मा की सब कुछ जान सकने वाली ज्ञान शक्ति को रोक रखा है। तात्पर्य यह है कि आत्मा-स्वभाव से अनन्त ज्ञानशाली है। जगत् का कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है जो आत्मा की ज्ञान शक्ति द्वारा जानने योग्य न हो, मगर-ज्ञानावरण कर्म ने उस शक्ति को दबा कर क्षुद्र और सीमित कर दिया है उसके स्वाभाविक परिणमन को विकृत कर दिया है।
इसी प्रकार दर्शन की शक्ति को देखने के सामर्थ्य को रोकने वाला, सीमित कर देने वाला कर्म दर्शनावरण कहलाता है।
आत्मा स्वाभावतः परमानन्दमय है। अनन्त सुख आत्मा का स्वाभाविक गुण हैं लेकिन आत्मा के इस परम सुखमय स्वभाव को वेदनीय कर्म ने दबा रक्खा है। इस कर्म के कारण आत्मा दुःख रूप वैषयिक सुख में ही सच्चे सुधार की कल्पना करता है। इसी कर्म के निमित्त से आत्मा नाना प्रकार के कष्टों का अनुभव करती है।
- श्री भगवती सूत्र व्याख्यान २१