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'अर्हन्त' शब्द 'अर्ह - पूजायां' धातु से बना है । अतएव अर्हन्त शब्द का अर्थ है - पूजनीय, पूज्य या पूजा करने योग्य। इस प्रकार णमो अरहंताणं-नमोऽर्हद्भ्यः' का अर्थ हुआ जो पूजनीय है उन्हें नमस्कार करता हूं।
यहां यह आशंका की जा सकती है कि लोक में पूज्य मानने के विषय में कोई निश्चित नियम नहीं है । पुत्र के लिए पिता पूज्य माना जाता है, माता पूज्य मानी जाती है, अन्य गुरुजन पूज्य माने जाते हैं। अगर पूज्य को ही अर्हन्त कहा जाये तो क्या माता-पिता आदि भी अर्हन्त हैं? इसका उत्तर यह दिया गया है कि यहां इस प्रकार की साधारण लोक- रूढ़ पूज्यता नहीं समझनी चाहिए। लोक रूढ़ी का कोई नियम नहीं है। लोक के अनेक पुरुष कुत्ते को भी पूज्य मान लेते हैं । अर्हन्त वह पूज्य पुरुष है जो लोक में पूज्य माने जाने वाले इन्द्र के द्वारा भी पूजनीय है । अष्ट महाप्रातिहार्यों की रचना होने पर देवों का प्रधान इन्द्र भी जिनकी पूजा करता है। ऐसी दिव्य महापूजा के योग्य महाभाग अर्हन्त ही है । अन्य नहीं ।
शास्त्र कहते हैं कि जो वन्दना - नमस्कार के योग्य हो उसे अर्हन्त कहते हैं। जिसके समस्त स्वाभाविक - गुण प्रकट हो गये हों, जो देवों द्वारा भी पूज्य हो, लोकोत्तर गति में जाने के योग्य हों, वह अर्हन्त हैं ।
अथवा-'रह' का अर्थ है गुप्त वस्तु-छिपी हुई बातें | जिनसे कोई बात छिपी नहीं है। सर्वज्ञ होने के कारण जो समस्त पदार्थों को हथेली की भांति स्पष्ट रूप जानते-देखते हैं, वह 'अरहोन्तर' कहलाते हैं। उन्हें मैं द्रव्य - भाव से नमस्कार करता हूं ।
अथवा-'अरहंत' पद का संस्कृत भाषा में 'अरथान्त' ऐसा रूप बनता है । रथ लोक में प्रसिद्ध है। यहां 'रथ' शब्द समस्त प्रकार के परिग्रह का उपलक्षण है। अर्थात् रथ शब्द से परिग्रह मात्र का अर्थ समझना चाहिए । 'अन्त' शब्द विनाश वाचक है। इस प्रकार 'अरथान्त' का अर्थ हुआ समस्त प्रकार के परिग्रह से और विनाश से जो अतीत हो चुके हैं। अतः 'अरहंताणं' अर्थात् 'अरथान्तेभ्यः' परिग्रह और मृत्यु से रहित भगवान् को नमः नमस्कार हो ।
अथवा-'अरहन्त' का एक रूपान्तर 'अरहयत्' भी होता है। इसका अर्थ इस प्रकार है - तीव्र राग के कारण भूत मनोहर विषयों का संसर्ग होने पर -अष्ट महाप्रातिहार्य आदि सम्पदा के विद्यमान होने पर भी जो परम वीतराग होने के कारण किंचित् मात्र भी राग को प्राप्त नहीं होते, उन्हें नमस्कार हो ।
श्री जवाहर किरणावली
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