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मूल प्रकृति से अभित्र उत्तर प्रकृति का अध्यवसाय विशेष द्वारा एक का दूसरे रूप में बदल जाना संक्रमण कहलाता है।
यहां यह आशंका की जा सकती है कि आत्मा का संक्रमण क्यों नहीं होता? इसका उत्तरा यह है कि आत्मा अमूर्त है, अतएव उसका संक्रमण होना संभव नहीं है।
अगर आत्मा अमूर्त है तो वह कर्मों को कैसे हटा सकती है? आकाश अमूर्त होने के कारण कर्मो को हटाने में असमर्थ है तो आत्मा को कैसे समर्थ माना जाय? इसका उत्तर यह है कि आत्मा में अध्यवसाय की शक्ति है। इस शक्ति से वह संक्रमण करती है । यद्यपि आकाश जड़ और आत्मा चेतन है । आत्मा की इस विशेषता के कारण दोनों को सर्वथा समान नहीं कहा जा सकता । आत्मा को भले बुरे का ज्ञान है । यद्यपि आत्मा स्वयं कुछ नहीं करती, लेकिन उसकी अध्यवसाय रूप शक्ति यह कार्य करती है । उदाहरणार्थ- मेज कारीगर की बनाई हुई कहलाती है; लेकिन उसमें कहीं कारीगर के हाथ-पांव नहीं दिखलाई देते। उसने जो कुछ किया है वह औजारों की सहायता से । यद्यपि कारीगर ने औजारों की सहायता से मेज बनाई, तथापि मेज, कारीगर की बनाई हुई ही कहलाती है, इसी प्रकार आत्मा जो कुछ भी करती है, वह अध्यवसाय की शक्ति द्वारा ही करती है। अच्छे अध्यवसाय से अच्छे कर्म करती है और बुरे अध्यवसाय से बुरे कर्म ।
संक्रमण के विषय में दूसरे आचार्य का यह मत है कि आयुकर्म, दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय को छोड़कर शेष प्रकृतियों का उत्तर प्रकृतियों के साथ जो संसार होता है, वह संक्रमण कहलाता है। उदाहरणार्थ, कल्पना कीजिए किसी प्राणी के शुभ कर्म उदय में आये । वह साता वेदनीय का अनुभव कर रहा है। इसी समय उसके अशुभ कर्मों की ऐसी कुछ परिणति हुई कि उसका सातावेदनीय असातावेदनीय के रूप में परिणत हो गया। इसी प्रकार असाता भोगते समय शुभ कर्मों की ऐसी परिणति हो गई कि उसकी असाता साता में परिणत हो गई। यह वेदनीय कर्म का संक्रमण कहलाया । यद्यपि यह सत्य है कि कृत्य कर्म निष्फल नहीं होते, तथापि निराश होने का कोई कारण नहीं है । पाप को काट डालना या पुण्य रूप में पलट देना हमारी शक्ति के बाहर नहीं हैं। पाप पुण्य रूप में परिणत हो सकता है और कट भी सकता है। अगर ऐसा न होता तो दान, तप आदि अनुष्ठान निरर्थक हो जाता। लेकिन यह अनुष्ठान निरर्थक नहीं है । तपस्या में इतनी प्रचण्ड शक्ति है कि उससे घोर से घोर कर्म भी नष्ट किये जा सकते हैं। श्री भगवती सूत्र व्याख्यान २६३