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और बादरत्व अथवा सूक्ष्मता या स्थूलता समझनी चाहिए, क्योंकि औदरिक आदि द्रव्यों में कर्मद्रव्य ही सूक्ष्म है।
यद्यपि कर्म- वर्गणा चतुःस्पर्शी है। वह हमें दिखाई नहीं देती, तथापि ज्ञानी जन उसे देखते हैं और उसमें अणुत्व एवं बादरत्व का भेद भी देखते हैं। उन दिव्य ज्ञानियों की अपेक्षा ही कर्म द्रव्य को अणु और बादर कहा गया है।
इसके पश्चात् गौतम स्वामी पूछते हैं-नारकी जीव कितने पुदगलों का चय करते हैं?
भगवान् उत्तर देते हैं-दो प्रकार के पुद्गलों का चय करते हैं-अणु और बादर का।
यहां अणु का अर्थ सूक्ष्म न कर 'छोटा करना चाहिए। आहार-द्रव्य की अपेक्षा दो प्रकार के पुद्गल चय होते हैं। आहार के कई पुद्गल छोटे होते हैं और कई मोटे होते हैं।
शरीर के अपेक्षा चय, उपचय का विचार पहले हो चुका है, यहां आहार की अपेक्षा विचार किया जा रहा है।
यहां शरीर में आहार का पुष्ट होना चय कहलाता है और विशेष पुष्ट उपचय कहलाता हैं। उपचय भी दोनों प्रकार के छोटे-छोटे और बादर-पुद्गलों का होता है।
कर्मद्रव्य की अपेक्षा उदीरणा भी दो ही प्रकार के पुद्गलों की होती है-अणु और बादर की। यहां अणु इसलिए कहा गया है कि चय और उपचय आहार-द्रव्यों का होता है, मगर निर्जरा कर्मद्रव्यों की होती है।
गौतम स्वामी ने फिर प्रश्न किया-भगवन्! नारकियों द्वारा कितने प्रकार के पुद्गलों का वेदन होता है?
इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने कहा-अणु और बादर दो प्रकार के पुद्गलों का वेदन होता है। निर्जरा के विषया में भी यहीं उत्तर समझना चाहिए।
गौतम स्वमी फिर पूछते हैं-भगवन्! नारकियों के कितने प्रकार के उपवर्तन हुए, हो रहे हैं और होंगे?
अध्यवसाय विशेष के द्वारा कर्म की स्थिति और कर्म के रस को कम कर देना अपवर्तन कहलाता है। यही बात उद्वर्तन के सम्बन्ध में है। अपवर्तनाकरण से कर्म की स्थिति आदि कम की जाती है और उद्वर्त्तनाकरण से अधिक की जाती है। २६२ श्री जवाहर किरणावली