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व्याख्यान-नरक के जीव पुद्गल का आहार करते हैं, यह कहा जा चुका है। अब पुद्गगल का अधिकार आरंभ होता है। इस अधिकार के अठारह सूत्र कहे गये हैं।
___ श्री गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं-नारकी जीव कितने प्रकार के पुद्गलों को भेदते हैं?
सामान्य रूप से पुदगलों में तीन प्रकार का रस होता है, तीव्र, म यम और मन्द। यहां भेदने का अर्थ है, इस रस में परिवर्तन करना। जीव अपने उद्वर्तनाकरण (अध्यवसाय विशेष) से मंद रस वाले पुद्गलों को मध्यम रस वाले मध्यम रस वाले पुद्गलों को तीव्र रस वाले बना डालता है। इसी प्रकार अपवर्तनाकरण द्वारा तीव्र रस के पुद्गलों को मध्यम रस वाले और मध्यम रस वालों को मंद रस वाले बना सकता है। जीव अपने अध्यवसाय द्वारा ऐसा परिवर्तन करने में असमर्थ है, तो क्या नारकी जीव भी ऐसा कर सकते हैं ? क्या वे तीव्र रस वाले पुद्गलों को मन्द रस के रूप में और मंद रस को तीव्र रस के रूप में परिणत कर सकते हैं? अगर कर सकते है तो कितने प्रकार के पुद्गलों को परिणत कर सकते हैं? अर्थात् भेद सकते हैं?
इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् फरमाते हैं-कर्म द्रव्य वर्गणा की अपेक्ष दो प्रकार के पुद्गलों को नारकी जीव भेद सकते हैं। दो प्रकार के पुद्गल हैं- सूक्ष्म (अणु) और बादर।
समान जाति के द्रव्य के समूह को वर्गणा कहते हैं। द्रव्य वर्गणा औदारिक आदि द्रव्यों की भी होती है, लेकिन यहां उनका ग्रहण नहीं करना है। उन वर्गणाओं का ग्रहण न हो, इसीलिए मूल में 'कम्मदव्ववग्गणं' पद दिया है। इस पद से सिर्फ कार्मण द्रव्यों की वर्गणा का ही ग्रहण होता है और
औदारिक वर्गणा, तैजस वर्गणा आदि अन्यान्य वर्गणाओं का निषेध हो जाता है। कर्मद्रव्यवर्गणा का अर्थ है-कार्मण जाति के पुद्गलों का समूह । वास्तव में कार्मण जाति के पुद्गलों में ही यह धर्म है कि वे तीव्र रस से मंद रस वाले और मंद रस से तीव्र रस वाले, करण द्वारा हो सकते हैं। इसी कारण यहां अन्य वर्गणाओं को छोड़ कर कार्मणद्रव्य वर्गणा को ही ग्रहण किया है।
'चेव' पद समुच्चय अर्थ में है। अससे अणु और बादर दोनों का अर्थ लिया जाता है।
यहां यह आशंका की जा सकती है कि कर्म-द्रव्यों को अणु और बादर लिया है सो किसकी अपेक्षा अणु समझा जाये? और किसकी अपेक्षा बादर समझा जाये? इसका उत्तर यह है कि कर्मद्रव्यों की अपेक्षा से ही अणुत्व
- श्री भगवती सूत्र व्याख्यान २६१