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________________ बतलाने के लिए सूत्र के नामों की व्याख्या की जा चुकी है। नामों की व्याख्या से इस शास्त्र का विषय समझ में आ सकता है। अभिदेय के अनन्तर प्रयोजन आता है। देखना चाहिए कि भगवतीसूत्र के अध्ययन से क्या प्रयोजन सिद्ध होता है? यह बात भी नामों की व्याख्या से समझ में आ सकती है। __ अच्छे-अच्छे कार्यों में बहुत विघ्न आते हैं। श्रेयांसि बहु विघ्नानि' यह कहावत प्रसिद्ध है। शास्त्र श्री श्रेयस्कर है और इसका पठन-पाठन भी श्रेयस्कर कार्य है। इस श्रेयस्कर कार्य में विज न आवें, इसी प्रयोजन में मंगल किया जाता है। मंगल अनेक प्रकार के हैं। यथा-नाम मंगल, द्रव्यमंगल, भावमंगल आदि। इन अनेक विध मंगलों में से यहां भावमंगल ही उपादेय है, क्योंकि भावमंगल के अतिरिक्त अन्य मंगल एकान्त मंगल नहीं है। द्रव्यमंगल, स्थापना मंगल और नाममंगल भी मंगल कहलाते हैं किन्तु वे मंगल अमंगल भी हो जाते हैं। अतएव यह एकान्त मंगल नहीं है। इसके अतिरिक्त यह आत्यन्तिक मंगल भी नहीं है, क्योंकि प्रथम तो यह एक दूसरे से घट-बढ़ कर हैं, दूसरे सदा के लिए अमंगल का अन्त नहीं करते। दही और अक्षत आदि मंगल माने जाते हैं मगर दही को अगर बीमार खा जाये और अक्षत सिर में लगने के बजाय आंख में पड़ जाएं तो क्या होगा? अमंगल रूप हो जाएंगे। जिस तलवार में शत्रु को काटने की शक्ति है वही तलवार यदि अपने ही गले पर फेर ली जाये तो क्या वह काटेगी नहीं? कुम्हार डंडे द्वारा चाक घुमाकर घड़ा बनाता है, अतः वह डंडा घड़ा बनाने में सहायक है। लेकिन वही डंडा अगर घड़े पर पड़ जाये तो क्या घड़ा फूट नहीं जायेगा? तात्पर्य यह है कि जो जोड़ते भी और तोड़ते भी हैं, हानि पहुंचाते हैं और लाभ भी पहुंचाते हैं, उन्हें एकान्त मंगल नहीं कहा जा सकता। संसार में जो अन्यान्य मंगल कार्य किये जाते हैं, वे सर्वथा निर्गुण या निष्फल हैं, यह कथन शास्त्र का नहीं है, लेकिन आशय यह है कि वे कार्य पूर्ण नहीं है, इसलिए एक ओर गुण करते हैं तो दूसरी ओर अवगुण भी करते हैं। ऐसी स्थिति में वे कार्य एकान्त गुण करने वाले नहीं कहे जा सकते। वैश्य व्यापार कर अपनी आजीविका चलाते हैं, क्षत्रिय तलवार के बल पर राज्य करते हैं और शूद्र सेवा करके अपना गुजर करते हैं। सभी अपने-अपने धंधे को मंगल-रूप मानते हैं और किसी अंश में उनके अपने-अपने ro - श्री भगवती सूत्र व्याख्यान १५
SR No.023134
Book TitleBhagwati Sutra Vyakhyan Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Aacharya
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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