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से सभी शास्त्र पूज्य हैं, लेकिन प्रकृतशास्त्र में विशेषता है, अतएव यह आदरणीय है और इसी कारण इस शास्त्र को 'भगवतीसूत्र' कहते हैं।
आज यह शास्त्र 'भगवती' नाम से जितना प्रसिद्ध है उतना और किसी नाम से नहीं। इस सूत्र को यह नाम आचार्यों ने दिया है।
मंगल टीकाकार ने सूत्र के नामों का निर्देश और उनकी सामान्य व्याख्या करने के पश्चात् शास्त्र की आदि में वर्णन किये जाने वाले फल, योग, मंगल और समुदायार्थ आदि-आदि द्वारों का उल्लेख किया है। प्रत्येक शास्त्रकार शास्त्र के आरंभ में उसका फल बतलाते हैं, योग अर्थात् संबंध प्रकट करते हैं, मंगलाचरण करते हैं और समुदायार्थ को अर्थात् उस शास्त्र में निरूपण किये जाने वाले विषय का सामान्य रूप से उल्लेख करते हैं। फल, योग, मंगल और समुदायार्थ का विवेचन विशेषावश्यक भाष्य में किया गया है, वहां से इन सब का स्वरूप समझ लेना चाहिए।
शास्त्रकार विघ्नों को दूर करने के लिए, शिष्यों की प्रवृत्ति के लिए और शिष्ट जनों की परम्परा का पालन करने के लिए मंगलाचरण, अभिधेय, प्रयोजन और संबंध का निर्देश यहां करते हैं।
शास्त्र रचना और शास्त्र पठन-पाठन में अनेक विघ्न आ जाते हैं। उन विघ्नों का उपशमन करने के लिए शास्त्र की आदि में मंगलाचरण किया जाता है। इस कथन में प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि इस शास्त्र की आदि में मंगलाचरण करते हैं तो क्या यह शास्त्र स्वयं ही मंगल रूप नहीं है? प्रकृत शास्त्र यदि मंगलमय है तो अलग मंगल करने की क्या आवश्यकता है? इसका समाधान यह है कि शास्त्र यद्यपि मंगल रूप ही है, तथापि शिष्यों के मन में यह भावना उत्पन्न हो जाये कि हमने मंगलाचरण कर लिया है, तो क्षयोपशम अच्छा होता है। इसके अतिरिक्त गणधरों ने भी सूत्र रचना के आरंभ में मंगल किया है। जब गणधर जैसे विशिष्ट ज्ञान वाले महात्मा भी मंगल करते हैं तो उनकी परम्परा का पालन करने के लिए हमे भी मंगल करना चाहिए क्योंकि
महाजनों येन गतः स पन्थाः। अर्थात्-महापुरुषों ने जो कार्य किये हैं वे सोच-विचार कर ही किये हैं। उनके कार्यों के विषय में तर्क-वितर्क न करके, उनका अनुकरण करना ही श्रेयस्कर है।
__मंगल के पश्चात् अभिधेय कहना चाहिए। शास्त्र में जिस विषय का प्रतिपादन किया गया हो उसका उल्लेख करना चाहिए। यहां अभिदेय १४ श्री जवाहर किरणावली
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