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________________ आत्मा में यह शक्ति है कि वह आहार-पुदगलों को आहारयोग्य गुण में परिणत कर लेता है। उदाहरणार्थ-दूध यदि पेट में जाकर दूध ही बना रहा तो वह आहार नहीं हुआ। आहार वह तब कहलाएगा, जब उसका रस, रक्त, मज्जा आदि बन जाये। इसी प्रकार आत्मा अपने शरीर में आहार के लिए पुदगलों को ग्रहण करती है, फिर उन्हें आहार के रूप में परिणत करती है। आत्मा समस्त आत्मप्रदेशों से आहार करती है, एक ही आत्मप्रदेश से आहार नहीं करती। जिस आत्मा में जितनी और जैसी शक्ति होगी। वह पुद्गलों को वैसे ही आहार के रूप में परिणत कर सकेगी। ऊपर जो संग्रह गाथा लिखी गई थी, उसके पूर्वार्ध में विद्यमान किं वाऽहारेति' इस पद की व्याख्या यहां तक की गई है। इस पद के आगे 'सव्वओ' पद आया है। अब उसकी व्याख्या की जाती है। टीकाकार के कथनानुसार 'सव्वओ' पद की व्याख्या के लिए निम्नलिखित पाठ का उच्चारण करना आवश्यक है: नेरइया णं भंते! सव्वओ आहारेंति, सव्वओ परिणामेंति, सव्वओ ऊससति, सव्वओ णीससंति; अभिक्खणं आहारेंति, अभिक्खणं परिणामेंति, अभिक्खणं ऊससंति, अभिक्खणं णीससंति, आहच्च आहारेंति? हंता गोयमा! नेरइया सव्वओ आहारेंति। अर्थः- भगवन! नारकी जीव समस्त आत्म प्रदेशों से आहार करते हैं, समस्त आत्म प्रदेशों से परिणमाते हैं, समस्त आत्म-प्रदेशों से उच्छवास लेते हैं, समस्त आत्म प्रदेशों से निःश्वास लेते हैं? निरन्तर आहार करते हैं, निरन्तर परिणमाते हैं, निरन्तर उच्छवास लेते हैं, निरन्तर निःश्वास छोड़ते हैं? या कदाचित् आहार करते हैं? (कदाचित परिणमाते हैं, कदाचित् उच्छवास लेते हैं और कदाचित् निःश्वास छोड़ते हैं?) हां गौतम! नारकी जीव समस्त आत्म प्रदेशों से आहार करते हैं इत्यादि। समस्त आत्म-प्रदेशों से आहार करते हैं, इसका अर्थ यह है कि जैसे घी की कड़ाई में पूरी छोड़ने पर वह सभी ओर से अपने में घृत को खींचती है, उसी प्रकार जीव सभी ओर से सभी प्रदेशों से आहार खींचता है। बाह्य रूप से पुद्गल को खींचना आहार नहीं कहलाता वरन् शरीर और गृहीत पुद्गलों को एक रूप बना देना, सर्वप्रदेश आहार कहलाता है। आहार, रस परिणमन करता है। वह रस-परिणमन सभी प्रदेशों में होता है। आहार और कर्मबन्ध दोनों के विषय में यह कथन लागू पड़ता है। तात्पर्य यह है कि जीव सब ओर से आहार कर सब प्रदेशों में परिणमाता है। - श्री भगवती सूत्र व्याख्यान २४७
SR No.023134
Book TitleBhagwati Sutra Vyakhyan Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Aacharya
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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