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इसी प्रकार सब प्रदेशों से उच्छ्वास लेता है, सब प्रदेशों से निःश्वास निकालता है।
सर्व साधारण मनुष्य जो श्वासोच्छ्वास लेते हैं तो उन्हें ऐसा मालूम होता है मानों पेट में श्वास लेते हैं और पेट से ही उच्छ्वास निकालते हैं। लेकिन श्वास वास्तव में सभी प्रदेशों से आता-जाता है। इस ओर पूर्ण ध्यान दिया जाये तो नाड़ी की गति से यह बात समझी जा सकती है।
भगवान् फरमाते हैं - हे गौतम! जीव निरन्तर भी आहार करता है और कदाचित् भी आहार करता है। इसी प्रकार परिणमन, श्वास और उच्छ्वास के संबंध में जानना चाहए। पर्याप्त अवस्था होने पर निरन्तर आहार करता है, निरन्तर परिणमाता है, निरन्तर श्वासोच्छ्वास लेता है, परन्तु अपर्याप्त अवस्था में कदाचित् आहार आदि करता है। जब विग्रह गति को प्राप्त होता है, तब आहार आदि नहीं ग्रहण करता, अपितु अविग्रह गति में ग्रहण करता है ।
आगे गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं कि भगवन् ! जिन पुद्गलों को आहार रूप में ग्रहण किया है, उनमें से नरक के जीव कितने भाग का आहार करते हैं? और कितने भाग का आस्वाद करते हैं?
भगवान् ने उत्तर दिया - हे गौतम! असंख्यात भाग का आहार करते हैं और अनन्त भाग का आस्वाद करते हैं ।
इस प्रश्न के मूल पाठ में 'सेयालंसि' (मूल पाठ - नेरइया णं भंते! जे पोग्गले आहारत्ताए गिण्हंति, ते णं तेसिं पोग्गलाणं सेयालंसि कइभागं आहारेंति, कइभागं आसायंति ? गोयमा ! अंसेखेज्जइभागं आहारेंति, अनंतभागं असाइंति ।—-पण्णवण्णा सुत्त)} प्राकृत भाषा का पद आया है। इसका संस्कृत रूप 'एष्यति' (भविष्यति) है। तात्पर्य यह है कि गृहीत आहार- - पुद्गलों में से ग्रहण करने के पश्चात् कितने भाग का आहार करते हैं? और कितने भाग का आस्वादन करते हैं?
असंख्यात भाग का आहार करते हैं। इस पद की व्याख्या भिन्न भिन्न प्रकार से की गई है। एक आचार्य का यह मत है कि जैसे गाय पहले ग्रास
में मुंह भर लेती है, पर उसमें से बहुत-सा भाग नीचे गिर जाता है और कुछ वह खा जाती है। इसी प्रकार नरक के जीव पहले-पहल आहार के जो पुद्गल खींचते हैं, उन खींचे हुए पुद्गलों का बहुत-सा भाग गिर जाता है और असंख्य भाग मात्र का आहार करते हैं।
२४८ श्री जवाहर किरणावली