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बोली की त्रुटि से नहीं खीझता, वरन् उसकी जिज्ञासावृत्ति को जानकर प्रसन्न होता है।
__ किसी एम.ए. परीक्षोत्तीर्ण अध्यापक के पास अगर कोई छोटा बालक कुछ पूछने जाता है, तब वह अध्यापक अगर उसे उच्च श्रेणी की विद्या सिखलाने लगे तो वह उस बालक के क्या काम की?
आज बालकों के दिमाग में उनकी शक्ति से अधिक शिक्षा भरी जाती है। बालक के संरक्षक चाहते हैं कि उनका बेटा शीघ्र से शीघ्र बृहस्पति बन जाए। मगर इस हवस का परिणाम जो हो रहा है वह स्पष्ट है। बालक के मस्तिष्क पर अधिक बोझ लादने से उसकी शक्तियां क्षीण हो जाती हैं और वह अल्पायुष्क हो जाता है। शास्त्रकारों ने इसीलिए कहा है कि जब तक बालक आठ वर्ष का न हो जाये तब तक उसे अक्षर-ज्ञान न दिया जाये। प्राचीन काल में इस अवस्था तक बालक को वही ज्ञान दिया जाता था, जो आंख और कान द्वारा दिया जा सके। आंख और कान द्वारा शिक्षा देने के लिए ही बालक के पास अठारह देशों की दासियां रखी जाती थीं।
अगर एम.ए. अध्यापक किसी बालक को शिक्षा देना चाहेगा तो उसे भी उस बालक के साथ बालक बनना होगा। वह बालक से जो उच्चारण कराना चाहेगा, वही उसे स्वयं करना होगा। भक्त तुकाराम ने कहा है
अर्भकाचे साठी, पन्ते हाथात धर ली पाटी।
अर्थात्- ईश्वर हमें उसी तरह ज्ञान सिखलाता है जिस प्रकार बालक के लिए अध्यापक स्वयं पट्टी उठाता है और स्वयं ही उच्चारण करता हुआ 'क' 'ख' लिखता है।
तात्पर्य यह है कि जब किसी बालक को सिखाना होता है तब सिखाने वाले को भी बालक की चाल चलनी पड़ती है। जब शिक्षक पहले बालक की चाल चलेगा तो आगे चलकर बालक भी शिक्षक की चाल चल सकेगा और तभी शिक्षक बालक को कुछ सिखा सकेगा।
माता, पहले-पहल बालक की उंगली पकड़ कर उसे चलाना सिखलाती है। तब वह स्वयं बालक की चाल में चलती है। अगर ऐसा न किया जाये और माता, बालक को अपनी चाल में चलाने का प्रयत्न करे तो काम नहीं चल सकता।
सारांश यह है कि भगवान् महावीर और गौतम स्वामी के प्रश्नोत्तर पिता-पुत्र के सम्बन्ध की तरह है। कहां तो भगवान का अनन्त ज्ञान और कहां उनसे किये जाने वाले ये छोटे छोटे प्रश्न? लेकिन भगवान् अगर इन छोटी २३४ श्री जवाहर किरणावली