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नय के मत के अनुसार जीव के चौबीस भेद हैं। इन चौबीस भेदों में पहला दण्डक नारकी का है, दस दण्डक असुर कुमार आदि के हैं पाँच दण्डक पृथ्वीकाय आदि के हैं, तीन दण्डक दो-इन्द्रिय आदि के अर्थात् द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय, के हैं। एक दण्डक पंचेन्द्रिय तिर्यंच का है, एक दण्डक मनुष्य का, एक दण्डक व्यन्तर देवों का, एक दण्डक ज्योतिषी का, और एक दण्डक वैमानिक का। इन चौबीस भेदों में ही संसार के समस्त (अनन्तानन्त) प्राणियों का समावेश हो जाता है।
प्रश्न किया जा सकता है कि अनन्तानन्त प्राणियों का चौबीस भेदों में अन्तर्भाव करने का प्रयोजन क्या है? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जब किसी वस्तु की गणना करना शक्य न हो तो वर्गीकरण का सिद्धान्त काम में लाया जाता है। कल्पना कीजिए एक वन है। उसमें अनेक प्रकार के वृक्ष लगे हैं। उन वृक्षों की गणना की जाय तो बड़ी ही कठिनाई उपस्थित होगी लेकिन उन्हीं वृक्षों की कोटियां बना ली जाएँ तो सुगमता होगी। जब संख्यात की ही गणना करने में कठिनाई आती है तो असंख्यात की गणना किस प्रकार हो सकती है, यह सहज ही समझ में आ सकता है। अतएव अनन्तानन्त जीवों का चौबीस श्रेणियों में वर्गीकरण करने से उनका पता लग जाता है।
यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि किसी भी वस्तु को श्रेणी बद्ध करने के लिए कोई एक निश्चित नियम नहीं है। यह विभाजन की इच्छा पर बहुत कुछ निर्भर रहता है। विभाजक अपनी सुविधा के अनुसार किसी भी सदृश धर्म को आधार मानकर अभेद और विसदृश धर्म को आधार बनाकर भेद की कल्पना करता है; क्योंकि वस्तुओं में अनेक सदृश और विसदृश धर्म विद्यमान है। व्याख्या की सुगमता के लिए चौबीस भेदों की कल्पना की गई है, यद्यपि इससे भी कम या अधिक की कल्पना की जा सकती है और अन्यत्र की भी गई है।
यहाँ इन चौबीस भेदों को दण्डक इसलिए कहा है कि इन स्थानों में रहकर आत्मा ने घोर कष्ट सहन किये हैं। यह चौबीस दण्ड के स्थान हैं। अनादि काल से अब तक आत्मा इनमें निवास करके दण्डभोग रहा है। यद्यपि इस जन्म में कुछ सुख मिला है। लेकिन वह सुख स्थायी शान्ति देने वाला नहीं है अतएव इसे भी दण्डक कहा है। आत्मा ने नरक आदि पर्यायों में रहकर किस प्रकार दुःखमय स्थिति भोगी है। इस बात को दिखाने के लिए ही शास्त्रकारों ने नरक आदि के भेद दिखलाये हैं। उनका विवरण क्रम से आगे किया जायेगा।
-श्री भगवती सूत्र व्याख्यान २२७