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गौतम स्वामी ने फिर पूछा- अभी उसने आलोचना तो की ही नहीं है, फिर आराधक कैसे हो गया?
भगवान ने फरमाया-चलमाणे चलिए अर्थात् जो चलने लगा वह चला इस सिद्धान्त के अनुसार वह मुनि आराधक है । वह आलोचना करने चला मगर कार्य पूर्ण न हुआ तो यह उसके अधिकार की बात नहीं है ।
अगर चलमाणे चलिए सिद्धान्त न माना जाय तो आराधक पद में भी कमी आ जाएगी और इस प्रकार मोक्ष का भी अभाव हो जायगा ।
इस प्रकार निश्चय नय की अपेक्षा जो चलने लगा वह चला, ऐसा मानना उचित है। लेकिन केवल निश्चय नय को ही मानकर बैठे रहने से और व्यवहार का त्याग कर देने से भी काम नहीं चल सकता । निश्चय और व्यवहार दोनों का यथायोग्य आश्रय लेना चाहिए। एक दूसरे की अपेक्षा रखने वाला नय ही सम्यक् होता है अन्य निरपेक्ष नय एकांत रूप होने से मिथ्या है । एकान्त व्यवहारवादी परमार्थ से दूर रहता है और एकान्त निश्चयवादी भी परमार्थ तक नहीं पहुँच सकता। इसीलिए कहा है
निरपेक्षा नया मिथ्यः, सापेक्षा वस्तुतोऽर्थकृत् ।
यहाँ एक शंका और होती है। वह यह कि चलमाणे चलिए यह प्रश्न पहले क्यों पूछा गया है? पहले इस शंका के विषय में कहा गया था कि यह पद मोक्ष के लिये है मगर अब तो वह मोक्ष के लिये नहीं रहा सामान्य रूप से सभी के लिए हो गया अतएव जहाँ पहले पद को मांगलिक कहा था। वहाँ अब यह मांगलिक न रहा तब फिर इस अमांगलिक पद को सर्वप्रथम स्थान देने का क्या प्रयोजन है?
इसका उत्तर दूसरे आचार्यों ने यह कह कर दिया है कि सर्वप्रथम नमो सुआय कहकर मंगल किया ही है; फिर तत्व चिन्तन की सभी बातें मांगलिक ही होती हैं। इस चलमाणे चलिए रूप तत्व चिन्ता का अन्त मोक्ष है । अतएव यह पद भी मांगलिक ही है। इसमें मोक्ष प्राप्ति का विवेचन भी अन्तर्भूत हो जाता है।
मोक्ष की प्राप्ति जीव को ही होती। अतएव जीव तत्व का मूल स्वरूप समझ लेने पर ही मोक्ष का स्वरूप ठीक-ठीक समझ में आ सकता है। जीव का स्वरूप समझने के लिए यह समझना भी आवश्यक है, कि वे कितने प्रकार के हैं । और वर्तमान में किस-किस स्थिति में विद्यमान हैं?
जीव के भेद बतलाने के लिए संक्षेप में कहा गया हैनेरइया असुराई पुढवाई बेइंदियादओ चेव । पंचिंदिय तिरिय नरा, विंतर जोइसिय वेमाणी ।। २२६ श्री जवाहर किरणावली