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मोक्ष प्राप्त करने वाले महात्मा किस स्थिति से किस प्रकार आत्मिक विशुद्धि करके मुक्त होते हैं। इस बात को ज्ञानियों ने अपने ज्ञान में देखा है और आज शास्त्र द्वारा उसे सुनकर हम पवित्र हुए हैं।
__प्रदेश का अर्थ है-कर्म का दल। पाँच स्व अक्षर उच्चारण-काल जितने परिमाणवाली और असंख्यात समययुक्त गुण श्रेणी की रचना द्वारा कर्म प्रदेश का क्षय किया जाता है। यद्यपि वह गुणश्रेणी है सिर्फ पाँच स्व अक्षर उच्चारण काल के बराबर काल वाली है, लेकिन इतने से काल में ही असंख्यात समय हो जाते हैं। वह गुणश्रेणी पूर्वरचित होती है। तेरहवें गुणस्थान से ही उस गुणश्रेणी की रचना होती है। इस गुणश्रेणी से समुच्छिन्न क्रिया नामक शुक्लध्यान का चौथा पाया उत्पन्न होती है। उसमें पहले समय से असंख्य समय तक प्रतिसमय असंख्य गुणा वृद्धि से कर्म पुदगल को दग्ध किया जाता है। अर्थात पहले समय में जितने कर्म पुदगल दग्ध होते हैं, उससे असंख्यात गुणे दूसरे समय में दग्ध होते हैं। इसी प्रकार तीसरे समय में , दूसरे समय की अपेक्षा भी अंसख्यात गुणे कर्मों को दग्ध किया जाता है, इस प्रकार दग्ध करने का क्रम बढ़ता जाता है। इसका कारण यह है कि ज्यों-2 कर्म पुदगल दग्ध होते हैं, त्यों त्यों ध्यानाग्नि अधिक प्रज्वलित होती जाती है और वह अधिकाधिक कर्मपुद्गलों को दग्ध करती है।
इस प्रकार भिद्यमान और दह्यमान पदों का अर्थ भी अलग-अलग है। पाँच स्व अक्षर उच्चारण करने में असंख्यात समय लगते हैं। इन असंख्यात समयों में से पहले ही समय में जो कर्मपुदगल दग्ध होते हैं, उनकी अपेक्षा उन्हें दग्ध हुए ऐसा कहा जा सकता है।
यद्यपि जला देना दूसरी वस्तुओं के संबंध में भी लोक प्रसिद्ध है, किन्तु यहाँ उसे ग्रहण नहीं करना चाहिए। यहाँ मोक्ष विचार का प्रकरण है अतः कर्मों को जलाना अर्थ ही मानना उचित है।
चौथा पद है-'मिज्जमाणे मडे। अर्थात जो मर रहा है वह मरा। इस पद से आयु कर्म के नाश का निरूपण किया गया है। अन्य पदों से इस पद का अर्थ भिन्न है। आयु कर्म के पुद्गलों का क्षय करना ही मरण है।
प्रत्येक योनि वाला संसारी जीव मरण को प्राप्त करता है। संसार में कोई भी ऐसा प्राणी नहीं है, जिसे लगातार जन्म-मरण न करना पड़ता हो। लेकिन यहाँ सामान्य मरण से अभिप्राय नहीं है। यहाँ उस मरण से तात्पर्य है कि जिसके पश्चात् फिर कभी जन्म मरण न करना पड़े- अर्थात् वह मरण जो मोक्ष प्राप्त करने से पहले एक बार करना पड़ता है। पहले बँधे हुए
- श्री भगवती सूत्र व्याख्यान २१६