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भिन्न-भिन्न अर्थ वाले हैं। यह बात विगत पक्ष की अपेक्षा से कही गई है। यहां इन पांच पदों का जरा विस्तार से विचार किया जाता है।
अंतिम पांच पदों में छिज्जमाणे छिण्णे' यह प्रथम पद है। यह पद कर्मों की स्थिति की अपेक्षा से है। केवल ज्ञान की प्राप्ति हो जाने के अनन्तर तेरहवें गुणस्थान वाले सयोग केवली जब अयोग केवली होने वाले होते हैं, मन वचन काय के योग को रोक कर अयोगी अवस्था में पहुँचने के उन्मुख होते हैं, तब वेदनीय नाम गोत्र कर्म की जो प्रकृति शेष रहती है, उसकी लम्बे काल की स्थिति को सर्वापवर्तन नामक करण द्वारा अन्तमूहर्त की स्थिति बना डालते हैं। अर्थात लम्बी स्थिति को छोटी कर लेते हैं। यही कर्मों का छेदन करना कहलाता है।
यद्यपि कर्मों का यह छेदन अंसख्यात समयों में होता है लेकिन प्रथम समय में ही जब छेदन क्रिया होने लगी तभी छीजे-छिन्न हुए ऐसा कहना
चाहिए।
यद्यपि कर्मों का यह छेदन होने में और भेदन होने में अन्तर है। छेदन स्थिति बंध के आश्रित है और भेदन अनुभागबंध के आश्रित है। स्थिति का छेदन होना छिज्जमाण होना कहलाता है और कर्मों के रस का भेदन करना 'मिज्जमाण' होना कहलाता है। तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगी केवली स्थितिघात के साथ रसघात भी करते हैं।
स्थितिघात और रसघात का काल एक ही होता है, लेकिन स्थितिघात के खंडवें में रसघात के खंडवें अनन्त होते हैं। अर्थात स्थिति से कर्म के परमाणु अनंत गुणे हैं। स्थिति खंड की क्रम रचना होती है, कि इस समय इतने स्थिति खंड का नाश होगा। अतएव यद्यपि कर्म स्थिति और कर्म रस का नाश एक ही समय होता है लेकिन स्थितिघात के पुद्गल अलग हैं और रसघात के अलग हैं इस कारण छिज्जमान और भिज्जमाण पदों का अर्थ अलग-अलग है।
जैसे स्थिति कम की जाती है उसी प्रकार रस भी सोखा जाता है। इस रस के सोखने में भी असंख्य समय लगते हैं परन्तु पहले समय से जो रसघात होता है, उसकी अपेक्षा रसघात हुआ ऐसा कहा जा सकता है।
तीसरा पद 'दह्यमान' है। कर्म के प्रदेशों का घात होना कर्म का दाह कहा गया है। अनन्तानन्त कर्म प्रदेशों को अकर्म रूप में परिणत कर देना कर्म का दाह करना कहलाता है। २१८ श्री जवाहर किरणावली